पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/४५२

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भाषाकी अनस्थिरता लेकर आजतक किसीको यह बात मालूम न थी। विषय जरा कड़ा है-इससे आप उसे और भी सरल करके समझाते हैं- “संकेतों अर्थात इशारों ( अर्थात् रुसूज अर्थात् किनायों-भी जोड़ दिया जाता तो संकेतका अर्थ और सरल हो जाता ) से भी मनके भाव प्रकट किये जा सकते हैं ; पर यह उपाय अप्रधान है। इशारोंसे वह काम नहीं हो सकता जो भाषासे होता है। इससे मनोभाव प्रकट करनेका प्रधान साधन भाषा है।” वाह वाह ! आप न समझाते तो यह गूढ़ विषय कौन समझाकर हिन्दी साहित्यका उपकार करता ? आप जैसे विद्वान संसारसे उठ जावगे तो कौन फिर ऐसी जरूरी बात इस सफाईसे समझावेगा ? तब तो हिन्दीको दुनियाँमें अन्धेरा ही हो जायगा ! पर बावजूद इस कवाइददानीके हमारे द्विवेदीजी दो कदम चलकर ही फिसलन्त फरमाते हैं। सुनिये-“मनुष्य और पशु-पक्षी आदिकी उम्र देश, काल, अवस्था और शरीर-बन्धनके अनुसार जुदा-जुदा होती है।” कोई पूछे कि जनाब व्याकरण-वीर साहब ! उम्र जुदा-जुदा होती है, या उम्र जुदा-जुदा होती हैं ? जुदा-जुदा होती है कि न्यूनाधिक होती है ? एकबार सिंहावलोकन तो कीजिये ! जरा अपनी कवाइदे- हिन्दीसे मिलाकर तो देखिये कौनसी बात ठीक है ? क्या आपकी व्याकरणदानीकी इज्जत रखनेके लिये बेचारी उम्रके टुकड़े कर दिये जाते हैं। ___ आप फरमाते हैं-"जिस तरह मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष और लता आदिकी उत्पत्ति, बृद्धि और विनाश होता है, उसी तरह भाषाका भी होता है ।” क्या होता है ? विनाश ? क्योंकि आपकी उत्पत्ति और बृद्धिको तो आपका “होता” लातें मार-मारकर भगाता है और आपकी व्याकरणदानीकी ओढ़नी उतारे लेता है। सचमुच जिस भाषाके ठेके- दार आप जैसे घरघमण्डी हों, उस अभागीका विनाश ही होता है। [ ४३५ ]