पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/४५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

गुप्त-निबन्धावली आलोचना प्रत्यालोचना वाजिदअली शाह खूब कह गये हैं कि खुदा किसी शहरकी जबानको देहातमें राइज न करे। यह तो द्विवेदीजीको व्याकरणदानीकी कैफियत है। अब जरा आपके बनाये हुए वाक्योंके अर्थ टोलिये। आपका पहला ही वाक्य है-“मनमें जो भाव उदित होते हैं, वे भाषाकी सहायतासे दूसरोंपर प्रकट किये जाते हैं !” क्यों जनाब, भाषाकी सहायतासे मनके भाव दूसरोंपर प्रगट किये जाते हैं या भाषासे ? आप टाँगोंकी सहायतासे चलते हैं या टाँगोंसे ? आँखोंकी सहायतासे देखते हैं या आँखोंसे ? कानोंकी सहायतासे सुनते हैं या खास कानोंहीसे ? लेखनीकी सहायतासे लिखते हैं या लेखनीहीसे लिखने लग जाते हैं ? जो अपनी बोली जानते हैं, वह इस वाक्यको इस तरह लिखते- “मनमें जो भाव उठते हैं, वह भाषासे दूसरोंको सुना दिये जाते हैं ।” अथवा "मनकी बात बोलकर दूसरोंको जना दी जाती है।" द्विवेदीजी तरजमें- से भाषा तैयार करते हैं, उसमें असलियत कहां ? भाषापन कहाँ ? तिसपर भी सबको सिखानेके लिये कमर कसकर खड़े हो गये हैं। आगे आप व्याकरणकी उत्पत्ति सुनाने चले हैं। इसमें आपके वाक्य आपसमें इस प्रकार टकराते हैं, जैसे भूकम्पसे घरके बर्तन या बन्दरके कूदनेसे मकानकी खपरैलें। आप फरमाते हैं-"शब्दोंके समूहका नाम भाषा है। शब्दोंके उत्पन्न होनेके बाद व्याकरण उत्पन्न होता है। पहले शब्द तब अनुशासन-पहले साहित्य तब व्याकरण ।" किसी हिन्दी जाननेवालेको उक्त तीनों वाक्य सुनाकर देख लो, वह फौरन कहेगा कि मजजूबकी बड़ है। ठीक यही मालूम होता है कि पहले दो वाक्योंके बीचसे एक वाक्य गायब हो गया है और तीसरा वाक्य उनपर जबरदस्ती दुलत्तियाँ झाड़ रहा है। भाषा जाननेवाला इन वाक्योंको इस प्रकार लिखता-"शब्दोंके समूहका नाम भाषा है। पहले शब्द [ ४३६ ]