पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/४६०

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भाषाकी अनस्थिरता होनेसे ही आज तीन सौ सालके बाद भी समझमें आती है, मीर अमनकी भाषा सौ साल हो जानेपर भी खूब समझमें आती है और गद्य उर्दू लेखक उसीके चलाये पथपर चलकर कृतकार्य हुए हैं। पर मियां सुरूर लखनवीकी घड़न्त भाषा “फिसानये अजाइब"हीमें रह गई, किसीने उसकी कद्र न की। सारांश यह कि शिक्षित लोगोंकी बोल- चाल लिखी जानेपर बहुत काल तक ठहरती है और समझमें आती है। वह खूब गठीली और चुस्त होती है गुट्ठल और बेडौल नहीं होती। जो लेखक रोजमर्रहकी भाषा नहीं लिख सकते, वह कितनी ही व्याकरण- दानीसे काम लें, उनकी भाषा उन्हीं तक रह जाती है। कोई उसकी पैरवी नहीं करता। द्विवेदीजी कुछ ऊंचे दरजेकी बात कहने लगते हैं,तो सडककी धूल समेटने लगते हैं। आप इस व्याकरण और भाषाको बहसमें संसारकी अनित्यता दिखाते हैं—“मनुष्य और पशु, पक्षी आदि जीवधारियोंकी तो कोई (नहीं साहब कुछ कहिये) बात ही नहीं स्वयं यह संसार ही नश्वर है। इसमें दिन-रात परिवर्तन हुआ करता है। जो चीज आज है वह कल नहीं, जो कल है वह परसों नहीं।” (परसों है वह अतरसों नहीं, अतरसों है वह और एक दिन पीछे नहीं। हिसाबी लोग इसी प्रकार एक-एक दिन बढ़ाकर इस गूढ़ दार्शनिक विषयको समझनेकी चेष्टा करें।) धन्य हैं ! भाषा और वैराग्यको एक ही लठसे हांकना हमारे द्विवेदीजीकी ऊंची पहुंचका काम है। यहां कबीरकी बुद्धि भी सिर झुकाती है। आप ऊपरके वाक्योंमें एक बहुत ही बारीक बात कहते हैं। अर्थात् मनुष्य और पशु, पक्षी आदि जीवधारी संसारसे अलग हैं। बाकी पहाड़, पत्थर, इंट, चूना, नदी, तालाब, पेड़, पत्ते आदिका नाम शायद संसार है। आकाश, तारे, चांद, सूर्य और समुद्र भी संसारही में होंगे। पर इनकी बाबत द्विवेदीजीने साफ कुछ नहीं कहा। पर [ ४४३ ।