पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/४६२

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भाषाकी अनस्थिरता आगे चलकर आप नई तान सुनाते हैं-"व्याकरण भाषाकी वृद्धिका अवरोधक है। वह भाषाकी सजीविताका नाश करनेवाला है।" वाह ! सुबहान अल्लह ! आप तो व्याकरणकी तरफदारी करने चले थे न ? जरा होश सम्हालकर बात कीजिये। हवासको काबूमें रखकर एक बात अच्छी तरह कहिये, तब दूसरीको मुंहसे निकलने दीजिये, जिससे सिलसिला न बिगड़े। आप लगे हाथ और भी फरमाते हैं-"भाषाओंके भी जीवनकी सीमा होती है। वे भी उत्पन्न होकर बढ़तीं और प्रतिकूल समय आते ही नाशको प्राप्त होती हैं।” ( नाश हो जाती हैं, कहनेमें शायद यह ओज न रहता ?) महाराजजी ! खयाल रखकर लिखिये, ऊपर भी दो बार यह बात आप कह चुके हैं। फिर फरमाते हैं-"जो भाषा उन्नति कर रही है-बढ़ रही है- उसमें व्याकरणको पख लगाना मानो उसकी बाढ़को रोक देना है। व्याकरण एक प्रकारकी बेड़ी है। भाषाके पैरोंसे उसका योग होते ही भाषा बेचारी भयभीत होकर जहांकी तहां रह जाती है।" दुहाई महाराज ! अब बार बार मत कहिये एक बार सुन लिया। आपकी बेतुकी सुनते सुनते कानोंके पर्दे फट चले। आपकी उलझी तकरीरका मतलब समझना मामूली बुद्धिके आदमीका काम नहीं है। आगामी बार आपकी नजीर समझनेकी चेष्टा की जावेगी। इस समय कृपा करके इतना बताते जाइये कि अनस्थिरताका क्या अर्थ है ? स्थिरता और अस्थिरताके बीचमें यह कहांसे पैदा हो गई । जो बात दो वाक्योंमें मनुष्य समझ जाता है, उसे द्विवेदीजी कमसे कम बीस तीस वाक्योंमें समझाये बिना नहीं रह सकते। एक बार