पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/४६४

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भाषाकी अनस्थिरता अपने इरशादका दूसरा पहलू बदलते हैं- “पर जो भाषा लिखी जाती है उसकी बात दूसरी है।” अजी! पढ़े-लिखे लोगोंमें जो भाषा बोली जाती है वह लिखी भी जाती है। आप यह क्या कहने चले हैं ? अपने वाक्यको यों सुधारिये- “पर लिख- नेकी भाषाकी बात दूसरी है।” देखिये तो १६ अक्षरोंका वाक्य कैसी सफाईसे १५ अक्षरोंका बन गया। अच्छा अब आपका इरशाद फिर चले-“जिस भाषामें बड़े-बड़े इतिहास, काव्य, नाटक, दर्शन, विज्ञान, और कला कौशलसे सम्बन्ध रखनेवाले महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे जाते हैं, उसका शृङ्खलाबद्ध होना बहुत जरूरी है। उसका व्याकरण बनना चाहिये ।” जरा ठहरिये, कृपा करके यह भी बताते चलिये कि जिस भाषामें बड़े बड़े उपन्यास, किस्से-कहानी, लतीफ, चुटकले, अदालतोंके फैसले, नामी वक्ता लोगोंकी वक्तृताएं, बड़ छोटे लाटोंके दौरेकी रिपोर्ट सामयिक समाचार आदि लिखे जायं उसका व्याकरण बने या नहीं ? मुझ फिदवी आत्मारामका इससे बहुत काम पड़ता है इसीसे बात काटकर पूछना पड़ा। अपराध क्षमा हो। अच्छा अब आगे बढ़िये- ___“लिखित भाषाहीमें ग्रन्थकार अपने कीर्तिकलापको रखकर अपना नश्वर शरीर छोड़ जाते हैं। व्याकरण ही उस कीर्तिका प्रधान रक्षक है।" फिर पूछना पड़ा, क्षमा करं। विनय यह है कि बहुतसे ग्रन्थकार एक ही नश्वर शरीर छोड़ जाते हैं यह कैसी बात है ? हरेकके एक एक नश्वर शरीर तो होता होगा ? एक ही शरीर छोड़ जाते हैं तो बाकीका क्या करते हैं ? फिर व्याकरण तो उस कीर्तिका प्रधान रक्षक है, कलाप और नश्वर शरीरका रक्षक कौन होता है ? विदित हो, दासानुदास आत्माराम यह न्याय-दर्शनको बात नहीं पूछता, व्याकरणकी पूछता है। [ ४४७ ]