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पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/४६५

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गुप्त-निबन्धावली आलोचना-प्रत्यालो द्विवेदीजी आगे आज्ञा करते हैं-"विविध विषयोंपर प्रन्थ लिर वाले ग्रन्थकारोंके अनुभव, खोज, परीक्षा और विचारोंसे भावी सन्त को चिरकालतक तभी लाभ पहुंचेगा जब ग्रन्थोंकी भाषा व्याकर नियमोंके द्वारा दृढ़ कर दी जायगी। व्याकरणका नियमन ( वाह नियमन ! ) भाषाकी उन्नतिका प्रतिबन्धक अवश्य है। (हाँ, आगे आप कई बार ऐसीही आज्ञा कर चुके हैं। यह मार मार मिठाई खि हैं ! ) पर यदि लिखनेकी भाषा उसका आश्रय लेकर अपनी परिव शीलताको न रोकेगी तो उससे समाजकी बड़ी हानि होगी।" f समाजकी हानि होगी? आर्यसमाजकी या ब्रह्मसमाजकी ? "समाज" भी आपके अंगरेजी तरजमेकी खराबी है। इसका अर्थ समय तो समझमें नहीं आता सौ वर्ष बाद आने लगे तो दूसरी बात इसी लिखित भाषामें आप जैसे ग्रन्थकार अपने कीर्तिकलाप ररु अपना नश्वर शरीर छोड़ जाना चाहते हैं ? आपका कथन है-"क्योंकि परिवर्तन होते-होते कोई समय आवैगा, जब पुरानी भाषाको लोग विल्कुलही न समझ सकेंगे अर उस भाषामें भरे हुए ज्ञानसमूहसे वे लोग ( कौन लोग ? किसकी र इङ्गित अर्थात् इशारा है ? जरा अपने व्याकरणमें देखिये तो) व रह जायंगे। पुरानी भाषाओंके भी जाननेवाले हुआ करते हैं। ( हैं या हैं कहिये। हुआ करते हैं देहातियोंकी बोली है।) परन्तु ( फालतू है ) बहुत थोड़े।” दो पंक्तियां भी आप साफ नहीं लिख सकते खाली व्याकरणकी झोंकमें लड़खड़ाते हैं। ___आपकी आशंकाका पिछला रूप देखिये-"रासोकी भाषाको । देखिये। उसमें कितने अपरिचित शब्द भरे हुए हैं। छः सात सौ . तो यह दशा है ; हजार दो हजार वर्षमें यदि भाषाकी वर्तमान सि ज्योंकी त्यों बनी रही, तो रासो बिलकुल ही समझमें न आवैग [ ४४८ ]