पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/४६६

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भाषाकी अनस्थिरता पिछले वाक्यमें “हजार दो हजार वर्षमें” की जगह “हजार दो हजार वर्षतक" चाहिये और "बनी रही'की जगह “बनी रहे”। भगवानही जाने आपका व्याकरण आपकी भाषाकी ऐसी-ऐसी मोंच भी निकाल सकता है या नहीं। खैर, अब मतलबकी तरफ चलिये। पहले तो आप पचास या सौ सालकी भाषाके समझमें न आनेकी शिकायत करते थे, अब हजार दो हजार तक पहुंचे। जरा विचारिये तो कैसे बेअटकल आप हैं। लिखते समय अगली पिछली बातोंका सिलसिला मिला लेनेके लिये भी व्याकरण कहता है या खाली अहम्रागनी गानेके लियेही ? ___ इस प्रकार ६ पंक्तियोंमें पूरी होनेके लायक बात व्याकरण-विशारद द्विवेदीजीने व्याकरणके जोरमें भरकर सरस्वतीके सात कालमोंमें पूरी की है। आपके कथनका सारांश यही है कि हिन्दीमें कोई अच्छा व्याकरण नहीं है। बोलनेकी भापाका व्याकरण न होना चाहिये, पर लिखनेकी भाषाको अवश्य व्याकरणकी जञ्जीरसे जकड़ देना चाहिये, जिससे वह हजार दो हजार वर्ष वैसीही बनी रहे। व्याकरणकी जोरमें बंधी रहनसे हजारों वर्ष पहलेको संस्कृत आजतक समझमें आती है। पर यह न समझना कि सातही कालममें आपका लेख समाप्त हो गया है। आपका गीत “सुनो भरत दै कान सुयश हनुमानजीको" वाले गीतसे भी कहीं लम्बा है। पूरे २४ कालम (कोई दो-चार लाइन कम) में समाप्त हुआ है। द्विवेदीजी कुछ ऐसी वैसी इस्तेदादके विद्वान नहीं हैं। अब प्रश्न करनेवाले एक प्रश्न कर सकते हैं कि क्यों द्विवेदीजीको इस प्रकार अचानक लालबुझक्कड़ बनकर इस खुदाकी सुरमादानीका पता बतानेकी जरूरत पड़ी ? इसका उत्तर सहज नहीं। ईश्वर नाना रूप धारण करके इस धराधामपर अवतार क्यों लेता है, क्या कोई इसका उत्तर दे सकता है ? नहीं। पर भक्त कहते हैं कि पृथ्वीका भार उतारने [ ४४९ ]