भाषाकी अनस्थिरता
जिसकी विद्याके हिसाबसे कुछ गिनती ही नहीं। जहां न कोई संस्कृत
जानता है न संस्कृतका व्याकरण। हिन्दी पढ़ा लिखा तो वहां होगा ही
कौन, क्योंकि हिन्दी वहांकी मातृभाषा है। फिर हरिश्चन्द्र जैसा विद्या-
शून्य आदमी-जिसने लाखों रुपये हिन्दीके लिये स्वाहा कर डाले और
पचासों ग्रन्थ हिन्दीके रच डाले, भला वह क्या एक पूरे पौने दो वाक्यका
विज्ञापन शुद्ध लिख सकता था ? कभी नहीं, तीन कालमें नहीं ! छापेवाले
कभी नहीं भूले, हरिश्चन्द्र ही भूला । क्योंकि वह व्याकरण नहीं जानता
था। न तो उसे कर्मके चिन्ह "को” का विचार था, न वह सर्वनामकी
जरूरतकी खबर रखता था। क्या अच्छा होता कि द्विवेदीजीका दो
दरजन साल पहले जन्म होता और हरिश्चन्द्रको आपके शिष्योंमें नाम
लिखाने तथा कुछ व्याकरण सीखनेका अवसर मिल जाता । अथवा
यही होता कि दो दरजन वर्ष हरिश्चन्द्र और जीता, जिससे द्विवेदीजीसे
व्याकरण सीख लेनेका अवसर उसे मिल जाता। साथ ही उसके गुरू
कहलानेवाले राजा शिवप्रसादको भी अपनी भूलें ठीक करा लेनेका
सौभाग्य प्राप्त होता।
द्विवेदीजी एक काम अच्छा करते हैं, कि सबको व्याकरणकी दृष्टिसे
देखते हैं । वह चाहते हैं कि लोगोंमें कोई बात व्याकरणविरुद्ध न हो ।
चाहे छींक, चाहे खांसें, चाहे खाय, चाहे पियं, रोयें या हंस, व्याकरणका
सदा ध्यान रखें। सुनिये आप कहते हैं-"हिन्दी लेखकोंमें एक बात
और भी हम बहुधा व्याकरणविरुद्ध देखते हैं। वह ब और व का अभेद
है। कहीं ब की जगह व हो जाता है और कही व की जगह ब। (आपसे
हो जाता है या हिन्दीके लेखकोंके लिखनेसे ? जरा पिछले वाक्यसे
अगलेको मिलाकर चलिये। ) ऊपरके अवतरणमें जो 'अनुवादित' शब्द
है। उसमें वा की जगह बा हो गया है। पर जिस पुस्तककी पीठपर यह
नोटिस छपी है, ( आपकी नोटिस-आत्मारामका नोटिस ) उसके नाम
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पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/४७२
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