भाषाकी अनस्थिरता दोबारा न पढ़ता था और कलम न मिलता तो तिनकोंहीसे लिख मारता था, मरनेके दो तीन साल बाद भी यह अन्धेर कि बकरी-विलापके दो खण्ड करके द्विवेदीजीकी व्याकरणदानीके कोमल हृदयमें आघात पहुंचाया ! हरिश्चन्द्र ! तुमने नाहक जन्म लिया और नाहक ऐसी सुन्दर हिन्दीको जन्म दिया ! न तुम होते, न ऐसी प्यारी हिन्दी होती। दास आत्माराम आनन्दसे उल्टे अक्षरों में "हातिमताई" और "चहारदर- वेश"का किस्सा पढ़ता और व्याकरणाचार्य द्विवेदीजी महाराज अपनी शुद्ध सरल व्याकरण मार्जित भाषामें बैठे-बैठे गाते- "झिनमा चटक छिनहिमां मद्धिम, जस बुझात खन होत दिया, ऐसे ही कछ दीख परत हैं, हमरी अकिलके लच्छन।" ___ अन्तमें विनय है कि तीन सप्ताह हो गये “अनस्थिरता" का उद्धार आपने न किया। इसे जरा एकबार अपने व्याकरणकी पोशाक पिन्हाकर सबके सामने लाइये । वाजिब था अर्ज किया, आइन्दा हुजूर मालिक हैं। राजा शिवप्रसादकी इसलाह हरिश्चन्द्रकी भूलोंको ठीक करके द्विवेदीजी अपने उदाहरणरूपी अत्रसे राजा शिवप्रसादकी इसलाह करते हैं। आप उनकी “बालबोध" नामक पोथीसे नीचे लिखे वाक्य उद्धृत करते हैं- “धरतीपर अनेक देश हैं और उनमें मनुष्य बसते हैं। परन्तु सब देशके लोगोंकी एक-सी बोली नहीं है।" द्विवेदीजी कहते हैं कि “सब देश” की जगह “सब देशों" क्यों न हो ? ठीक है, जो आप कहते हैं वही होना चाहिये। पर इसे आप राजा साहबकी भूल समझगे या असावधानी ? सुनिये, राजा साहब उर्दूसे हिन्दीमें आये थे, कदाचित् इसी कारण उनसे यह असावधानी [ ४५७ ]
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