गुप्त-निबन्धावली
आलोचना-प्रत्यालोच
हुई। राजा साहबने "हर” का तरजमा “सब” किया है। "हर देश'
या “हर मुल्क" होता तो ठीक होता। आप भी कुछ न कह सकते
हरको “सब” बनानेहीमें “देश” को “देशों" बनानेकी जरूरत पड़ी।
स्वयं द्विवेदीजीने भी एक मौकेपर 'हर'की जगह 'सब' लिख मारा है ।
आपके वह वाक्य इस प्रकार हैं-
"जिस अखबारको उठाइये, जिस पुस्तकको उठाइये, सबको वाक्य-
रचनामें आपको भेद मिलेगा।" यहां “हरेककी” की जगह द्विवेदीजीने
"सबकी" लिख डाला। जब द्विवेदीजी भूल सकते हैं तो एक भूल
राजा शिवप्रसादकी भी माफ होना चाहिये।
द्विवेदीजी राजाकी और भी भूलें दिखाते हैं- "बिजली कुछ बादलोंही
में नहीं रहती। थोड़ी बहुत (२) सब जगह और अक्सर चीजोंमें
रहा करती है। यहां तक कि (३) हमारे और तुम्हारे बदनमें भी है।
और कलोंके जोरसे भी (४) निकल सकती है ।--विद्याङ्कुर, २३ वीं
आवृत्ति। राजा शिवप्रसाद ।'
द्विवेदीजी इसपर कहते हैं -- “(२) थोड़ी बहुतके आगे 'बिजुली' क्यों न
हो ? और जहाँ (३) और (४) अङ्क हैं, वहाँ 'वह' क्यों न हो ?" यदि
द्विवेदीजीकी आज्ञा मानी जाय, तो राजा शिवप्रसादका वाक्य इस तरह
बने–“बिजुली बादलोंहीमें नहीं रहतीं, थोड़ी बहुत बिजुली (धन्य
बिजुली ! देहातकी औरतोंको भी द्विवेदीजीने मात किया। एक बार
अवधके एक गांवमें स्त्रियोंके मुंहसे यह शब्द सुना था, या अब द्विवेदीजी-
से सुना !) सब जगह और अक्सर चीजोंमें रहा करती है। यहां तक
कि वह हमारे और तुम्हारे बदनमें भी है, और कलोंके जोरसे भी वह
निकल सकती है।"
अब जिनको हिन्दीकी समझ है, वह जरा विचार कि राजा साहबके
वाक्योंसे मतलब साफ निकलता है या द्विवेदीजीके संशोधित वाक्यों-
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पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/४७५
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