पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/४८३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

गुप्त-निबन्धावली आलोचना-प्रत्यालोचना टाँग अड़ाते हैं दोनोंमें। जब आपको किसी देशकी बोलीकी ही खबर नहीं है तो उसके व्याकरणके सुधारके लिये क्यों दौड़ते हैं ? 'वह' और 'वे' की बहससे व्याकरण भरे पड़े हैं। सुनिये दिल्ली, आगरा और लखनऊ तीनों प्रान्तोंके लोग 'वह' और 'यह' को एकवचन और बहुचन दोनोंमें बोलते हैं। बहुत चेष्टा हुई कि बहुवचनमें 'वह' को 'वे' या 'वो' बना दिया जाय और यह को 'ये'। पर 'वे' को तो लोगोंने निरा गंवारी समझा और 'वो' और 'ये' चले नहीं। उक्त तीनों प्रान्तोंमें 'वे' किसीके मुंहसे नहीं निकलता। कोई अनपढ़ या गंवार बोल उठे तो उसकी बातको मानताही कौन है ? व्याकरणोंमें साफ लिखा है कि 'वह' एकवचन और बहुवचन दोनों है और 'वे' गैरफसीह है। गोस्वामी राधाचरण आगरा प्रान्तके हैं, हिन्दीके देशके हैं, वह 'वे' क्यों लिखने लगे ? आशा है कि आपने अपनी 'अनस्थिरता' को व्याकरणका लहंगा पिन्हाया होगा। क्योंकि बहुत दिन हो गये। एक विशेष प्रकारके जलपक्षीकी भांति द्विवेदीजीको किनारेके कीचड़- में सब मिल जाता है । इसीसे अगाध जलतक कष्ट करनेकी आवश्य- कता आपको नहीं पड़ती। आप यथासम्भव हिन्दी लेखकोंकी भूलं इधर उधरके विज्ञापन आदिसे चुनते हैं, उनकी बनाई पुस्तकोंपर कम हाथ डालते हैं । जिस प्रकार हरिश्चन्द्रकी भूल एक सड़ियल विज्ञापनमें टटोली, वैसेही काशीनाथजी खत्रीकी त्रुटि किसी आलोचना या सूचनासे निकाली है । सुनिये- ___“यह एक पुस्तक नागरीमें है।” * * * जिनको ये दोनों पुस्तक लेनी हों * * शाहजहांपुरसे मंगालें * [ ४६६ ]