भाषाकी अनस्थिरता
- * तृतीय भागमें निषेधकोंके आपत्तियों और कल्पनाओंके
विधिपूर्वक उत्तर हैं।” द्विवेदीजी इसपर यों एतराज फरमाते हैं- "पुस्तकके पहले 'एक' शब्द अनावश्यक जान पड़ता है। दोनों पुस्तक' की जगह 'दोनों पुस्तक' क्यों न हो ? आपत्ति और कल्पना शब्द स्त्रीलिङ्ग हैं । अतएव उनके सम्बन्धके सूचक 'के' की जगह स्त्रीलिङ्ग 'की' होना चाहिये।” द्विवेदीजीको इस बातका तो मगज नहीं है कि बीस साल पहले जो हिन्दी बोली जाती थी अब उसमें कुछ अन्तर हो गया है। काशीनाथने पुस्तकके पहले 'एक' ठीक लगाया है। उस समय लोग इसी तरह लिखते थे। दोनों पुस्तक नहीं। पहले उर्दूवाले आतियां हैं, जातियां हैं, लिखते थे। वाजिदअलीशाह तक यह चाल रही। अब नहीं है। इसे भूल कहना निरा बेमगजापन है। इतनाही कहा जा सकता है कि यह मुहावरे छूट गये, अब नहीं बोले जाते। एक उर्दूका कवि कहता है- वह सूरत इलाही किस देश वस्तियां हैं, अब देखनेको जिनके, आखें तरसतियां हैं। तब यह बोलचाल शुद्ध थी, उत्तम समझी जाती थी। अब लोग उसकी पैरवी नहीं करते। पर उसे गलत नहीं बताते। उस समयके बोलनेवालोंपर ताने नहीं झाड़ते। क्योंकि पुराने लेखक इस समयके लोगोंके पथप्रदर्शक और Pioneer थे। उनकी मेहनतकी तरफ ध्यान करना चाहिये । वह पथ परिष्कार न करते तो इस समयके लोग चलते किधरसे। जिसने पहले रेलका इञ्जन बनाया, उस आदमीकी जबतक संसारमें सभ्यता रहेगी, पूजा होगी। उसके भहे इञ्जनको लोग बड़ी प्रीतिकी दृष्टि से देखेंगे। आजकलके उत्तम इञ्जनोंको देखकर यदि कोई उस आदमीके उस आदि इञ्जनकी बनावट पर हंसे तो उसे द्विवेदीजी