पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/४८५

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गुप्त-निबन्धावली आलोचना-प्रत्यालोचना जो कुछ कहना चाहें वह कृपा करके अपनेहीको कहल । क्योंकि आपकी उसी आदमीकी-सी गति है। द्विवेदीजी एक जरासी छापेको भूलको भी हिन्दीके लेखकोंके सिर मढ़ देते हैं। 'की' की जगह 'के' छप जानेसे आप फरमाते हैं कि काशीनाथने आपत्ति और कल्पनाको स्त्रीलिङ्ग नहीं समझा। इतना भी न सोचा कि यह छापेकी भूल होगी। खैर न सोचा न सही, द्विवेदीजी काशीनाथकी पुस्तकोंमें दो-चार स्थान ऐसे दिखावें जहाँ आपत्ति या कल्पनाको पुलिङ्ग लिखा हो। नहीं तो आपकी आपत्ति महज लुर है। उर्दूवाले गद्यमें लिखी हुई “के” और 'की' की सनद नहीं मानते हैं। क्योंकि वह जानते हैं 'के' की जगह 'की' या 'की' की जगह 'के' लिखा जा सकता है। ऐसे मौकोंपर वह कवितासे सनद लेते हैं। जैसे मीरने एक जगह 'जान'को स्त्रीलिङ्गकी जगह पुलिंग लिख डाला है.- इश्क बुरेही खयाल पड़ा है, चैन गया आराम गया। जानका जाना ठहर गया है, सुबह गया या शाम गया। अब यदि इसके पहले चरणमें “चैन गया आराम गया" न होता तो उर्दूवाले कभी न मान लेते कि मीरने “जान" को पुलिङ्ग लिखा है। वरञ्च वह समझते कि लेखकने भूलसे “गई” को “गया" लिख मारा है। पर पहले अंशमें "आराम गया" मौजूद है इससे दूसरे अंशमें भी "शाम गया” शुद्ध मानना पड़ेगा। उर्दूवालोंके इस उदार नियमको द्विवेदीजीकी आपत्तिसे मिलाकर देखना चाहिये। हिन्दीमें पचासों पोथियां लिख जानेवाले काशीनाथको, द्विवेदीजीकी समझमें इतनी लियाकत भी न थी कि आपत्ति और कल्पनाका लिंग समझता । हरिश्चन्द्र, राजा शिवप्रसाद, गदाधर सिंह, राधाचरण और काशी- नाथ आदिकी पहले कही हुई भूलें दिखाकर द्विवेदीजी अपनी राय शरीफ (बल्कि शरीफा) यों जाहिर फरमाते हैं- [ ४६८ ]