पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/४८६

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भाषाकी अनस्थिरता - - "इस तरह सारी (बल्कि लंहगा ! आपका देहाती चोचलाही तो सितम करता है !) त्रुटियोंको हम मुहाविरा नहीं समझते ।” अजी महाराज ! सच तो यह कि आप कुछ भी नहीं समझते। पर इतनी हेचमदानी पर भी हमादानीके पीछे लठ लिये फिरते हैं। पहले तो आप किसीसे यह पूछिये कि त्रुटियोंको 'मुहाविरा' कैसे समझा करते हैं। फिर यह पूछिये कि “मुहाविरा" शब्दका ठीक उच्चारण और अर्थ क्या है । जबतक आपको इस शब्दके अर्थका ज्ञान न हो जाय, तबतक इसका नाम लेकर अपनी हंसी मत कराइये । द्विवेदीजी और कहते हैं- “यदि वे सब मुहाविरा समझ ली जायंगी तो मुहाविराको परिभाषाके बाहर शायद एक भी त्रुटि न रह जाय । सभी उसमें आजायंगी।” यह एक या सवा वाक्य द्विवेदीजीने दूसरोंकी भूलें दिखानेको लिखा है। पर आप स्वयं इसमें कितनी भूलें कर गये हैं, सुनिये--इसमें “वे” तो गंवारी है, आजकलके अच्छे लेखक इसे मक समझते हैं। "मुहाविरा" गलत लिखा गया है, इसका उच्चारण पूछकर द्विवेदीजी इसे सही लिख तो अच्छा। "मुहाविराकी परिभाषा" की जगह “मुहाविरेकी परिभाषा” चाहिये । यह एक बहुतही मोटी भूल है। “समझ ली जायंगी” के मुकाबिलेमें “रह जाय" ठीक नहीं। या तो पहलेही 'गी' न चाहिये नहीं तो पीछे भी एक गी' जोड़नेकी जरूरत है। द्विवेदीजी और कहते हैं-“हम मुहाविरा (रे) के खिलाफ नहीं । ( तब शायद मुहावरा कमबख्तही आपके खिलाफ होकर आपसे इस प्रकार टेढ़ा-टेढ़ा चलता है !) मुहाविराही भाषाका जीव है। पर उसकी सीमाका होना आवश्यक है।" अजी महाराज ! “जीव" है कि “जीवन" है ? शायद "न" को आपका कम्पोजीटर हजम कर गया। नहीं तो आप जैसे विद्वान् जीव और जीवनका भेद न जानते हों ऐसा कहना तो ढिठाई है। क्योंकि [ ४६९ ]