पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/४९५

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गुप्त-निबन्धावली आलोचना-प्रत्यालोचना हमने उर्दूवालोंसे सीखा है ।" शायद आपकी बात ठीक हो, पर इतना आप जान लें कि उर्दूवाले भी ऐसे प्रयोग छोड़ते चले जाते हैं। अब उन्हें 'को' से बड़ी नफरत होने लगी है। जिस 'को' को आप व्याकरण सम्मत समझते हैं, उससे भी वह बहुधा तरह दे जाते हैं। जैसे आपका वाफ्य है-" * * इस तरहके प्रयोगोंको हमने उद्देवालोंसे सीखा।" इसकी जगह अब यों लिखने लगे हैं-".........इस तरहके प्रयोग हमने उदवालोंसे सीखे हैं।" ___ जो कुछ हो आप एक भद्दी चाल छुड़ाना चाहते हैं, इसके लिये आत्माराम आपका धन्यवाद करता है। पर विपद यह है कि एक भही चाल छडाने जाकर आप चार भद्दी सीख लेते हैं। आपका एक वाक्य है-“उनकी सदोषता जाती रहती।" आप इसे सीधी तरह यों लिख सकते थे-उनका दोष जाता रहता।" बेचारे दोषको पुरुष से स्त्री बनाना और उसके पीछे एक 'स' लगाना आपकी निहायत "सबद्धिता” का परिचय देता है। इसके सिवा एक आध अच्छी चाल नाहक छोड़ने और एक आध अपनी तरफसे नई जारी करनेका आपको बहुत शौक है। आप कभी-कभी क्रियाको ऐसे मौकेपर गायब करना चाहते हैं, जहां वह हो नहीं सकती। जैसे-* * * * नियमों का प्रतिबन्ध हिन्दीको क्यों ?” यहां आपकी 'क्यों' का जी एक 'हो' के बिना उसी तरह नहीं लगता है, जैसे एक गंवारकी अकेली अशरफीका जो उसके पानीके मटकोंके पास गड़ी हुई थी। ___एक बात दो तरह होनेसे ही द्विवेदीजी घबरा उठते हैं। यहां तक कि 'जब तब' और 'जो तो' ने ही आपको घबरा दिया। सुनिये उर्दू- वाले 'जब' के मुकाबिलेमें 'तो' भी नहीं लाते, उसे गायब ही कर देते हैं। बहुतसे हिन्दीवाले भी इसी चालको पसन्द करते हैं। दास आत्माराम की भी यही पसन्द है। प्रयाग और काशीके हिन्दी लेखक अबके [ ४७८ ]