पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/५०६

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आत्मारामीय टिप्पण (१) __ “अनस्थिरता" अपनी अनस्थिरताके तारसे लटकते हुए हमारे द्विवेदीजी महाराज आजकल अच्छी त्रिशङ्कुलीला दिखा रहे हैं। वह तार हवाके झोंकोंसे उड़ता हुआ कभी कलकत्तं पहुंचता है, कभी काशी। पहले तो आप मोचते रहे कि "अनस्थिरता” हिन्दीसे सिद्धकी जाय या संस्कृतसे । कलकत्तके ट ट रामने जब बताया कि अनखानी, अनहोनीकी तरह 'अनस्थिरता' हिन्दीसे सिद्ध हो सकती है, तब द्विवेदीजीको भी यह कहने- का साहस हुआ कि वह हिन्दीहीसे सिद्ध होती है। यह बात आपने टटरामका धन्यवाद किये बिना और उन्हें उस्तादीकी कुरसी दिये बिनाही, फरबरीकी सरस्वतीमें स्वीकार कर ली। अब आप इस बातपर स्थिर हैं कि "अनस्थिरता" हिन्दीसे सिद्ध है। पर यार लोग भी तो पीछा नहीं छोड़ते। पं० गिरधर शर्मा आदिने छेड़ना शुरू किया, तो आप फरमाते हैं कि वह संस्कृतसे भी सिद्ध हो सकती है। ईसपकी कहानी- वाले देहातीसे जब यह कहा गया कि देखो भाई तुम अपना गधा बताते हो यह तो गधी है, तो उसने कहा कि हाँ, ठीक है-पर मेरा गधा कुछ ऐसा गधा भी न था। अपनी 'अनस्थिरता'को हिन्दी संस्कृत दोनों साबित करनेके लिये हमारे द्विवेदीजी भी वही दहकानी काररवाई करते हुए हिन्दी बंगवासी आदि तक पहुँचे हैं। ___ आपको ऐसी घबराहटमें देखकर हमारे एक मित्रने कहा कि द्विवेदीजीको “अनस्थिरता” अंगरेजीसे साबित हो सकती है। जिस प्रकार उनका भाषा और व्याकरणका लेख जर्मनीसे चलकर जुही तक पहुँचा है, उसी प्रकार आपकी 'अनस्थिरता' भी विलायती मालकी खेप है। [ ४८९ ]