गुप्त-निबन्धावली आलोचना प्रत्यालोचना प्राप्त हुआ था। उसकी कुछ बात अपने पाठकोंके लिये भारतमित्रमें भी प्रकाशित करदी थीं। कितने ही सालतक इस साधु पुरुपका लोग नाम सुनते थे, पर पता-ठिकाना कुछ नहीं जानते थे। कोई नहीं जानता था कि वह कहां रहता है । खाता कहीं था, रहता कहीं था, किसीसे मिलता- जुलता न था। जिनसे कभी मिलनेका कुछ काम पड़ भी जाता था, तो उनपर प्रगट न होने देता था कि वही स्पेन्सर है ! उसने सारी उमर एकान्तमें बैठकर विचार किया। उसी विचारका फल उसकी किताब हैं। वह बड़ाईका भूखा न था । अपनी छटांकभर विद्याको मनभर करके दिखलाना तो क्या ; विद्वान कहलाने तकमें राजी न था। मान-बड़ाई- ईर्षासे रहित था । धन, मान--किसी चीजका लालच उसे फुसला नहीं सकता था। हाफिजने क्या खूब कहा है- बिरोई दाम बर मुर्गे दिगर नेह, कि उनका रा बलन्दस्त आशियाना । __“जा यह जाल दूसरी चिड़ियोंके लिये फेला, उनका घोंसला बहत ऊंचा है।" ऐसे पुरुषकी किताबें द्विवेदीजी हिन्दीमें लिखना चाहते हैं, इससे उत्तम काम और क्या हो सकता है । हिन्दी जाननेवालों पर सचमुच आप बड़ी कृपा करना चाहते हैं, उनके साथ बड़ी उदारताका बर्ताव करना चाहते हैं। स्पेन्सर मत्सर-रहित, साधु पुरुष होनेके सिवा विद्वान् और बड़ा नामी आलोचक था । अवश्य ही वह हम हिन्दी अखबारवालोंकी भांति कुछ अटरम-सटरम पोथियोंके पन्ने नापनेवाला आलोचक न था, पर था बड़ा भारी आलोचक । संसारका कोई ऊंचा विचार या काम नहीं है, जिसकी आलोचना उसने न की हो। मनुष्यके कामोंसे लेकर, प्रकृतिके कामों तककी आलोचना उसने की है। द्विवेदीजी भी हिन्दीमें अपने [ ४१८ ॥
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