पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/५१६

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हिन्दीमें आलोचना समयके एक बड़े आलोचक हैं । आशा है कि वह स्पेन्सरकी किताबोंसे स्वयं भी लाभ उठावंगे। जान लंगे कि विद्वानको अपने गलेमें ढोल डाल- कर अपनी विद्याका डङ्का बजानेको कोई जरूरत नहीं है। आलोचकमें केवल दूसरोंकी आलोचना करनेका साहसही न होना चाहिये, वरच अपनी आलोचना दूसरोंसे सुनने और उसकी तीव्रता सहनेकी हिम्मत भी होना चाहिये। जिस प्रकार वह यह समझता है, कि मेरी बातोंको दूसरे ध्यानसे सुनं, उसी प्रकार उसे स्वयं भी दूसरोंकी बात बड़ी धीरता और स्थिरतासे सुनना चाहिये। यह नहीं कि आप तो जो चाहे सो कह डाले और दूसरा कुछ कहे तो गुस्सेसे मुंहमें झाग भर लावे, जबान काबूमें न रख सके। स्पेन्सर भी आलोचनासे बचा नहीं। विद्वानोंने उसके विचारोंकी बड़ी कड़ी आलोचना की है। कह सकते हैं कि उतनी कड़ी आलोचना दूसरोंकी बहुत कम हुई है। पर इससे उसके माथे पर जरा भी बल न आया । अपने आलोचकोंकी बात सुनकर वह जामेंस बाहर कभी न हुआ और न अपने आलोचकोंको उसने अपनेसे जलनेवाला और पुराना शत्रु कहा। ___ फल यह हुआ कि उसके विचारोंका इन आलोचनाओंसे बड़ा आदर और प्रचार हुआ। बेन और हक्सले आदि विद्वानोंको उसके विचारोंका खूब ध्यान रखकर चलना पड़ा है। आश्चर्य है कि द्विवेदीजी स्पेन्सरकी किताबोंके समझने और उन्हें हिन्दीमें लिखडालनेकी योग्यता रखने पर भी स्पेन्सरकी-सी धीरता और दृढ़ता नहीं दिखा सकते ! स्पेन्सरका यह गुण उनमें न आया ! अब मुख्य उद्देश्यकी ओर आते हैं। गत फरवरी मासकी सरस्वतीमें द्विवेदीजीने जो लेख “भाषा और व्याकरण" पर लिखा हैं, उसीकी कुछ आलोचना इस लेखमें करना चाहते हैं। उक्त लेख आपने लिखा तो