गुप्त-निबन्धावली आलोचना-प्रत्यार अपने पहले लेखकी पुष्टि और आत्माराम बाबूके लेखोंके खण्डनमें, उससे वह अर्थ सिद्ध न हुआ। उक्त लेख एक व्यक्ति विशेषपर गाति की बौछार बन गया। उसमें आपने प्रमाण, युक्ति और तर्कसे कम काम लिया और गाली, गुस्से और स्वकल्पित इलजामोंसे अधिक। इस व्यर्थ कल्पनासे आपने तर्कमें कुछ सहायता न लेते तो कोई दोष भी नहीं दे सकता। गजब यह किया है, कि झूठी कल्पनाएं करते गये और उधर इन्हें खूब सच्ची तांबेके पट्टे की : मजबूत मानकर खयाली दौड़में बहुत दूर निकले चले गये। इतन निकल गये कि आपको इतना होश न रहा कि कहां चले आये। इ एक उदाहरण द्विवेदीजीके उक्त लेखसे देते हैं। आपने किसी समझ लिया है कि आत्माराम और कोई नहीं वह स्वयं 'भारत सम्पादक' है। इस नामकी ओटमें वह छपना चाहता है। यह वि आपके जीमें आते ही 'भारतमित्र-सम्पादक', उसके लिखे लेख, पुर और 'भारतमित्र' अखबारको आपने आत्माराम मान लिया। आप 'भारतमित्र-सम्पादक'के सब दोष आत्मारामक दोष और उ पोथियोंकी भूलोंको आत्मारामकी भूल समझते हैं। भारतमित्रमें । एक-एक पंक्तिका उसीको जिम्मेदार समझते हैं । भला, इस खुशफहर कुछ ठिकाना है ! ___ इतना ही नहीं, इससे भी बढ़कर सुनिये। जब आपने २ व्याकरणपर पहला लेख लिखा, तो यह नहीं बताया था कि इसमें अ निजके विचार ही नहीं मैक्समूलर आदि अंगरेजीके विद्वानों सतीशचन्द्र आदि बंगाली पण्डितोंके विचारोंका निचोड़ भी शामिल जब आत्माराम बाबू द्वारा उस लेखकी आलोचना हुई, तो फरवरीके लेख में आपने यह बात खोली है। पर अब खोली तो । आपने समझ रखा है कि जिस प्रकार यह बात पहलेसे आपके मग [ ५०० ।
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