पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/५२५

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गुप्त-निबन्धावली आलोचना-प्रत्यालोचना हिमायत की है, वह भी हैं और स्वयंही उन्होंने अपने-अपने लेख भी लिखे हैं, भारतमित्र-सम्पादकने "उनकी सामग्रीका उपयोग अपने तौर पर" नहीं किया। इससे यह मान लेनाही अच्छा है कि भारतमित्र- सम्पादक आत्माराम है। __ पर इतनी उदारता कीजिये कि उसे अपना पुराना शत्रु होनेके इल्जामसे माफ कीजिये। इससे समालोचकोंकी बड़ी निन्दा होती हैं, लोग कहेंगे कि यह समालोचक लोग बड़े इतरजीव हैं कि लोगोंसे अपनी शत्रुता निकालनेके लिये उनकी पोथियोंके दोष दिखाया करते हैं। साहित्य या भाषाकी भलाईके लिये वह कभी नहीं लिखते, ग्वाली प्रमाद और विप्रलिप्सावश अन्ट-सन्ट बका करते हैं ! द्विवेदीजी महा- राज । आत्मारामकी एक आलोचनासे आप इतने विचलित हो गये कि जी काबूमें न रहा। शिष्टाचारकी दीवारसे भी जिसका अग्निहोत्रीजी बड़ा ध्यान रखते हैं, उचक कर पार हो गये.! जरा ध्यान दीजिये जो लोग सालहा सालसे आपकी कड़ी आलोचना सह रहे हैं और कभी उफ नहीं करते, कहिये वह किस कड़े कलेजेके लोग हैं , आळोचक होने पर भी आपकी यह घबराहट और आलोचक न होने पर भी उन लोगोंकी वह बरदास्त, आश्चर्यके योग्य है या नहीं ? इससे अब यह मानलं कि जिस प्रकार पराई छेड़ आपके हृदयमें चुभती है, वैसेही आपकी बात भी दूसरोंके मनको व्यथित करती है। आत्मारामने तो खाली आपसे छेड़ की है, आप पचासोंसे कर चुके हैं। पर यदि आत्माराम या भारतमित्र-सम्पादक आपको शत्रु है, तो आप पचासोंके शत्रु हैं। आप कितनोंहीको छेड़ते हैं और वह आपको। यह बेचारा अलग-अलग कितनोंको छेड़ने जाय, एक सबके छेड़नेवाले आपहीको क्यों न छेड़ ले ? सब पुण्य एकही तीर्थराजमें मिल जाय ! पर यह उसकी बहादुरी है। इसपर आपको उसकी पीठ ठोकना चाहिये न कि उससे नाराज होना । [ ५०८ ]