गुप्त-निबन्धावली आलोचना-प्रत्यालोचना S गई थी। सिर पटक-पटक कर फोड़ती थी। एक तुम्हारे कारण वह अपनी रण्डादशा कुछ भूल गई थी। तुम भी उसे छोड़ आये। अब तो वह मरी। कामिनी कमनीय अरक्षित देखकर बहुत लोग उसे अपनी करना चाहते हैं। पर वह इसके योग्य नहीं। क्योंकि लोग- रसके रुचिर भेद नहीं जानत यद्यपि बाहु पसारी। वा रसिकासों चहहिं मोहवश, आलिंगन बलिहारी! वह घृणा करके उन अयोग्य पुरुषोंके पाससे भागती है। पर वह निर्लज्ज बलात्कारको हाथ बढ़ाते हैं। कितनीही तरहके वस्त्र उसे पहि- नाते हैं। कोई उसे जर्मनीकी चिड़ियोंकी परोंकी टोपी, कोई पैरिसकी गौन, कोई पूने-नागपुर-मद्रासकी धोती पिन्हाता है और- घेरदार घाघरो अवधको, कोऊ बुरो बनाई। प्राणवधूटिनहूकी जिह लखि, उठै आंख अधिकाई । बरबस पकरि प्रियाकी चोटी, तन मन दीन ढकेलि । हाहाकार सुने नहिं नेकहु, वाके जानि अकेलि ॥ इस प्रकार कालिदासकी कविता-बधूकी बेइज्जतीका स्वप्न देखते- देखते द्विवेदोजी जाग पड़े, तो कहीं कुछ न था। १८ दिसम्बर के अङ्कमें एक लेख आपका गद्य छपा है। यह पण्डित श्रीधरजोकी कवितासे सम्बन्ध रखता है। २५ दिसम्बरके अङ्कमें आपका "श्रीधर सप्तक" छपा है। इसका आरम्भ यों हैं- बाला-वधू-अधर अद्भुत स्वादताई । द्राक्षाहुकी मधुरिमा मधुकी मिठाई । एकत्र जो चहहु पेखन प्रेमपागी। तो श्रीधरोक्त कविता पढ़ियेऽनुरागी। [ ५१४ ]
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