गुप्त-निबन्धावली आलोचना-प्रत्यालोचना % 3D "पहले हमै खिलाई सोवैहमै सुलाई-" आदि पंक्तियां पाठक भूले न होंगे। १२ फरवरीसे आपकी 'कुमार सम्भवसार' नामकी कविता छपना आरम्भ हुई । १६ फरवरीको इस कविताका जो अंश छपा है, उसके नीचे द्विवेदीजीका एक नोट है, जो आपको तबीयतकी एक विशेषताका पता देता है। वह इस प्रकार है- ___ “कानपुरमें एक G. K. Srivaswi ( जी० के० श्रीवस्वी ) महा- शय हैं। आपका हिन्दी नाम हमको मालूम नहीं। आपने लिग्वाही नहीं। लाला सीताराम बी० ए० के चिरञ्जीव गिरिजाकिशोरके नाममें भो जी० के० है। परन्तु यह विश्वास नहीं होता कि वह यही महाशय हैं। जी० के. जी हमसे सख्त नाराज हैं। अपराध हमारा यह है कि हमने लाला सीतारामके अनुवादोंकी समालोचना की है। आपने हमको उपदेश दिया है, कि लाला साहबके अनुवादोंकी समालोचना करना छोड़ एक आध संस्कृत ग्रन्थका हम भी अनुवाद करें। आपके उपदेशको मान देकर आज हमने यह “सार” लिखा है। यदि जी० के० महाशयको यह 'सार' पसन्द आया, तो 'अनुवाद' लिखनेका भी, अवकाश मिलने पर हम विचार करंगे, परन्तु समालोचनासे हाथ खींचनेके विषयमें आपके उपदेशको मान देना चाहिये अथवा नहीं --- इस बातका अभी तक हमने निश्चय नहीं किया है। महावीरप्रसाद द्विवेदी झांसी १३ फरवरी १६००।” २१ मई तक आपका यह “सार” छपता रहा। इसके नीचे जो नोट होते थे, उनमें बराबर लाला सीताराम पर चोटें होती थीं। हम बराबर द्विवेदीजीसे विनय करते रहे, कि आप अपना अनुवाद किये जाइये, लाला सीतारामजीसे हर वक्त छेड़-छाड़की जरूरत नहीं है। पर [ ५१६ ।
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