हिन्दीमें आलोचना आईनेके समान साफ-दिल हलका क्योंकर होता है, यह बात तो द्विवेदीजीके समझाये बिना हमारी समझमें आनेकी नहीं, बाकी उनका मतलब हम 'समझ गये। अप्रैल १६०१ ई० तक की सफाई हम पेश कर चुके हैं। "६ वर्षकी पुरानी नेक-नीयती" कोई ५ वर्षकी रह गई। उसकी सफाई हम और पेश करना चाहते हैं। द्विवेदीजी इस पत्रमें लिखा करते थे, वह कृपा उन्होंने कम करदी, इसका कारण हमने बहुत तलाश किया, कुछ न मिला। रामभजवाले झगड़के बाद फिर 'भारतमित्र' में उनपर किसी प्रकारको लिखा-पढ़ी भी नहीं हुई। फिर नाराजीका क्या कारण ? दुश्मनीका क्या कारण ? बहुत याद करनेसे एक बात हमें स्मरण हुई। वह यह है कि एक-आध बार हमने उनके भेजे हुए लेख कुछ विशप कारणोंसे नहीं छापे । आपका एक लेख था- "किसने किससे होली खेली” उसमें लिखा था- "बूरोंने अङ्गरेजोंसे होली खेली, अमुकने अमुकसे होली खेली।" हमने लिखा कि यह लेख आपकी शानके लायक नहीं हुआ। आपने वापिस मंगवा लिया, हमने भेज दिया। हम समझे थे कि "जो कुछ लिखे छपाये सिद्ध, और नहीं नामही प्रसिद्ध" से द्विवेदीजीको नफरत है। उस लेखको आप फाड़कर फंक दंगे। पर हमने कई दिन बाद एक हिन्दी अखबार में (शायद “हिन्दो- स्थानमें") देखा कि वह लेख छप गया है। फिर एक कविता उनकी आई थी, उसका शीर्षक शायद-"मांसाहा- रीकोहंटर" था। हमने उनको कहा कि यद्यपि हमलोग मांसखानेवालोंमें नहीं हैं, तथापि आपने जिन शब्दोंमें मांसखानेवालोंको याद किया है, वह अच्छे नहीं हैं, फिर भी आप तो एक ऐसी जातिके हैं जिस जातिके लोग मांस खाते हैं। इससे आप इस लेखकी नजरसानी कर लीजिये। एक और कविताकी बात हमें याद पड़ती है। उसका शीर्षक 'बलीबई' था। 'काव्यमाला में एक संस्कृत कविता छपी थी। किसी कविने
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