पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/५४१

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गुप्त-निबन्धावली आलोचना-प्रत्यालोचना वह नागपुरके राजा लोगों पर उनकी कंजूसीके कारण लिखी थी। कविने अपने भैसेकी महिमा वर्णन करते हुए राजाकी हजो की थी। 'हिन्दी प्रदीपमें' भी उस पर एक लेख छपा था। बलीबईको उस भैंसेकी महिमा मेंसे कुछ महिमा द्विवेदीजीने अर्पण कर दो थो । भैसेवाले कविने अपने भैंसेकी एक खास तारीफ को थी। द्विवेदोजी अपने ‘बलीबई' के लिये उस तारीफका लोभ संवरण न कर सके। हमने उनको लिखा कि इन उपमाओंमें सभ्यता जरा आंख दिखाती है। इस पर वह कविता भी द्विवेदीजीने वापिस मंगवाली। फिर कहां छपवाई, कुछ याद नहीं। पर उनकी 'काव्यमंजूषामें' शायद वह है। ___ और एक बात है। 'नैषधचरितचर्चा' नामको पोथी द्विवेदीजीने हमारे पास कोई दो तीन दफा भेजी और उसकी आलोचनाके लिये आज्ञा की। कई कारणोंसे यह आज्ञा हमसे पालन न हो सकी। यह कई एक बात हैं, जिनसे द्विवेदीजी शायद हम पर कुछ अप्रसन्न हों और शायद इन्हीं बातोंसे उन्होंने 'भारतमित्र में लिखना बन्द कर दिया हो । नहीं तो और कोई कारण हम उनसे लड़ाई या शत्रुताका नहीं पाते। हम आशा करते हैं कि ऐसे तुच्छ कारणोंको उनक सदृश उदार पुरुष दुश्मनीमें नहीं लासकते। ___ अब हम फिर 'सरस्वती' की बात छेड़ते हैं। प्रथम वर्ष उसको काशीके पांच सज्जन मिलकर सम्पादन करते थे। दूसरे और तीसरे वर्ष उन पांचमेंसे एक बाबू श्यामसुन्दरदास उसके सम्पादक रहे। चौथे सालसे 'सरस्वती' द्विवेदीजोके हाथमें आई। इससे पहले 'सरस्वती के साथ छेड़-छाड़ करनेमें हम और द्विवेदीजी बराबर थे। पर अबसे केवल हमारी छेड़ रह गई, उनकी मिट गई और 'सरस्वती'से छेड़ करना मानो उनसे छेड़ करना हो गया। 'सरस्वती'का जनवरी १६०३ ईस्वीका नम्बर द्विवेदीजी द्वारा [ ५२४ :