हिन्दीमें आलोचना सम्पादित होकर निकला। उसकी आलोचना ३१ जनवरी १६०३ के भारत- मित्रमें की गई । आलोचनाका जरूरी अंश हम नीचे उद्धत कर देते हैं। ___"इस नम्बरमें एक आधके सिवा सब लेख सम्पादकके प्रतीत होते हैं। ढंग अच्छा है। 'विष्णुशास्त्री चिपलूणकर' नामका लेख सुन्दर और सुपाठ्य है। पर 'सरस्वतीका विनय' नामकी कविता भद्दी हुई है। बाबू श्यामसुन्दरदास कविताका ज्ञान नहीं रखते थे, उनके समयमें भद्दी कविताका छपना दोपजनक न था। पर द्विवेदीजी नामी कवि हैं, कविताका मर्म जाननेवाले हैं, उनके होते ऐसी कविता क्यों छपी ? ___सरस्वतीके इस नम्बरके अन्तिम पृष्ठ पर एक चित्र छपा है, उसमें दिखाया है कि एक बिना पूंछ का हनुमान गदा हाथमें लेकर कविता कुटुम्बका मुख चूर कर रहा है । 'व्यङ्ग' 'अक्षर' 'मैत्री' 'अर्थ' 'अलंकार' और 'सरसता' सबको ध्वंस किये डालता है-'अनेक उपाधिधारी समस्या पूरक कवि' पर इतनी चोट होने पर भी उसी नम्बरमें जो कविता छपी है, उसका नमूना लीजिये---- 'यद्यपि वेश सदैव, मनो मोहक धरती हूं। बचनोंकी बहु भांति, मचिर रचना करती हूं। उदर हेतु में अलम नहीं तिस पर पाती हूं। हाय ! हाय ! आजन्म दुख सहती आती हूं । बालिका सरस्वती कहती है कि मैं वेश भी बड़ा जी लुभानेवाला बनाती हूं और बात भी बहुत मीठी-मीठी कहती हूं, तिसपर भी खानेको पूरा नहीं पाती। हाय ! हाय कैसी जन्मको दुःखिनी हूं। शिव ! शिव ! इसका नाम कविता है ! क्या भावके सिर पर वन गिराया है। क्या सरस्वतीको बाजारी स्त्री बनाया है। यदि कविताकी फौजदारी अदालत बैठे, तो ऐसे कविको फांसीकी सजा दे [ ५२५ ]
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