गुप्त-निबन्धावली आलोचना-प्रत्यालोचना उनके लिये बहुत खोज करनेकी जरूरत नहीं है। जो लिखा जा चुका है, वही यथेष्ट होगा। हमारे द्विवेदीजी आलोचनासे नाराज नहीं हैं । नये- पुराने सबकी आलोचना करना आप अच्छा समझते हैं। भेद केवल इतना ही है कि अपनी आलोचना शांतिसे नहीं सुन सकते। एक बार आपने शृंगार-रसकी कविता पर एक लेख लिखा था । उसमें लिखा था कि केवल ब्रजभाषाके कवि ही राजाओंके रुपयोंके लोभसे श्रृंगार-रसकी कविता करते थे। बंगला, मराठी, गुजराती आदि भाषाओंके कवियोंने वैसी कविता नहीं की। हमने उनका यह लेख पढ़कर दिखाया था कि गुजराती और मराठीकी बात तो हम कह नहीं सकते, पर बंग-भाषामें शृंगार-रसकी कविता ढेरों मौजूद है । कुछ कविता हमने 'अमृतबाजार पत्रिका' के वृद्ध सम्पादक बाबू शिशिरकुमार घोषकी संग्रह की हुई पोथियोंसे उधृत भी कर दी थी। साथही यह भी बता दिया था कि शिशिर बाबूने यह पोथियां किसी राजासे इनाम पानेके लिये संग्रह नहीं की। हम आशा करते हैं कि हमने जो द्विवेदीजीको उनकी एक मोटी भूलसे आगाह कर दिया, इसका यदि उन्होंने कुछ गुण न माना हो, तो इसे शत्रुता भी न समझा होगा। ___ इसी प्रकार एक मराठी लेखका अनुवाद छापते हुए द्विवेदीजीने कहा था कि महाराष्ट्र लोगोंने ही हिन्दीको राष्ट्र भाषा बनानेकी ओर ध्यान दिया है । बंगालियोंने इधर कुछ ध्यान नहीं दिया । इसपर हमने पुराने 'बङ्गदर्शन' से दिखाया था कि लगभग ३० वर्ष पहले 'बङ्गदर्शन' में ऐसे लेख निकल चुके हैं, जिसमें बंगाली विद्वानोंने हिन्दी भाषाको राष्ट्रभाषा बनाने पर जोर दिया है। अपनी समझमें हमने एक पुरानी बात खोजकर प्रकाशित करनेमें अच्छा ही काम किया । हम नहीं समझ सकते कि उसे भी कोई दोषका काम क्योंकर बता सकता है ? अब हम आत्मारामजीकी आलोचना पर दो-चार मोटी-मोटी बातें
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