पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/५५६

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हिन्दीमें आलोचना विद्यावागीश हमारे स्थान पर आये। विद्यावागीशजी संस्कृतके अद्वि- तीय पण्डित हैं। उनसे इस शब्दके विषयमें बातचीत हुई। ___ सप्रे महाशय भी उस समय थे। हमने उसे एक तरहसे इच्छित अर्थमें संस्कृतका शुद्ध शब्द माबित किया। उसे तो उन्होंने मानही लिया, पर उन्होंने एक और तरहसे भी उसे शुद्ध ठहराया।" ___ जो व्यक्ति हिन्दीका सुधार चाहता है, उसमें एक अच्छा व्याकरण देखा चाहता है, उसके हृदयकी यह लम्बाई-चौड़ाई देखनेके योग्य है । अपने अशुद्ध वाक्योंको शुद्ध बतानेका जिन लोगोंको इतना आग्रह है, वह व्याकरणका सुधार करने चले हैं ! आश्चर्य है कि आप अपना एक शब्द न बदलेंगे और दुनियां आपके कहनेसे अपनी भाषा बदल देगी ! आपका यही मोह छुड़ानेके लिये आत्मारामने आलोचना की थी। परोक्तं नैव मन्यते आत्मारामने बार-बार द्विवेदीजीसे यह कहा है कि आप छापेकी भूलोंको ग्रन्थकारकी भूल मत समझा कीजिये। इस सीधीसी बातके माननेमें भी आपको बड़ा कष्ट हुआ । बाबू हरिश्चन्द्रकी “नाटक" नामकी एक पुस्तकपर “रुग्नावस्था” शब्द छप गया है, द्विवेदीजी उसपर टिप्पणी करते हैं - "पर बाबू साहबका समावस्था शब्द या तो हिन्दी है, या अगर संस्कृत है तो महाभाष्यकी रूसे सही है या अगर नहीं सही है, तो बाबू साहब उसके जिम्मेदार नहीं, क्योंकि उन्होंने अपने लेखोंकी कापी दुबारा नहीं पढ़ी और प्रफ पढ़नेका तो कुछ जिकर ही नहीं । बड़े ग्रन्थकारोंको चालही यही है।" हमारी इच्छा तो न थी कि हम ऐसे कठोर वचन द्विवेदीजीको कहें, पर लाचार होकर कहना पड़ता है कि जिस आदमीकी यह समझ है, उसकी दवाही केवल आत्मारामकी लेखनी है। इस प्रकारको समझ रखनेवालोंको आत्मारामी ढंगसेही उत्तर मिला करता है । क्या बाबू साहब 'रुम' और 'रुग्ण'को नहीं जानते [ ५३९ ।