अश्रुमती नाटक 'अश्रुमती' नामके साथ इस मोटोका कुछ मेल नहीं है। यदि पुस्तक महाराणा प्रतापका चरित्र दिखानेके लिये होती तो उसपर यह वाक्य लिखा जा सकता। काशी-निवासी बाबू राधाकृष्णदास अपने 'महाराणा प्रतापसिंह' नामके नाटक पर यह वाक्य लिखते तो शोभा देता। किन्तु जिस पुस्तकमें प्रतापकी वीरता न दिखाकर 'अश्रुमती' का कलङ्क दिखाया गया है, उस राजपूत कन्याको एक मुसलमान शाहजादे- के प्रेममें पागल होते दिखाया है, ऐसी पुस्तकमें इस मोटोके लानेकी क्या जरूरत थी ? पाठकोंको समझानेके लिये हम अश्रुमती नाटककी कहानी- का आशय कह देते हैं:- ___ अकबरका सेनापति महाराज मानसिंह अकबरकी तरफसे दक्षिण विजय पाकर दिल्लीको वापस जाता हुआ उदयपुर आया। महाराणा प्रतापकी ओरसे उसकी दावत हुई। पर महाराणा स्वयं दावतमें नहीं आये-लड़के और मन्त्रीके हाथसे सब काम कराया। पीछे प्रतापका मानसिंहसे आमना-सामना होजाने पर प्रतापने कहा कि मानसिंह ! तुमने अकबरको अपनी बहन देकर कुलमें कलङ्क लगाया है, इसलिये तुम्हारे साथ बैठकर हम भोजन नहीं कर सकते। मानसिंह नाराज होकर दिल्ली चला गया और अकबरको बहकाकर मेवाड़पर सेना चढ़ा लाया। महाराणा प्रताप पराजित होकर बनों और जङ्गलोंमें घूमने लगे। उनके साथ उनकी कल्पित लड़की अश्रुमती भो थी। एक दिन अकबरकी सेनाका एक मुसलमान चोरीसे अश्रुमतीको चुरा ले गया । मानसिंहके कहनेसे उसने ऐसा कुकर्म किया था। मानसिंहने उस मुसलमानसे कहा कि महाराणा प्रतापकी यह लड़की तुमसे व्याही जायगी। इससे प्रतापने जो मुझे गाली दी है, उसका बदला होजायगा। पर अकबरके बेटे शाहजादे सलीमको अश्रुमतीको खबर लग गई। उसने अश्रुमतीको अपनी रक्षामें रखा। अश्रुमती सलीमके प्रेममें पागल हो 3५
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