गुप्त-निबन्धावली मालोचना-प्रत्यालोचना सांधारण भाषामें चलते हैं, एक प्रांतीय नहीं हैं । 'लहलहाना' और 'घने' उर्दमें भी चलते हैं। "न्यारी" शब्द साधारण हिन्दीमें चलता है,- उर्दू में नहीं । “निगोड़ी" शब्द गंवारी नहीं है, शहरमें भी चलता है, पर स्त्रियोंकी बोलीमें। “भोली" शब्द तो उद्देवाले भी खूब लिखते हैं। एक बात आपने भूमिकामें विचित्र लिखी है - "हिन्दी लिखनेमें ब्रजभाषाके शब्दोंसे छुटकारा नहीं मिल सकता।" ग्वब कही, जब हिन्दी ब्रजभाषा- से बनी है तो वह ब्रजभाषाके शब्दोंको कैसे छोड़ सकती है ? ब्रजभाषाके जो शब्द हिन्दीमें मिलकर देशव्यापी हो गये हैं, वह हिन्दीसे अलग नहीं हो सकते और जो शब्द ब्रजके गांवों में रह गये हैं उनके मिलानेकी कुछ जरूरत नहीं है। बात बढ़ानेसे बहुत बढ़ जायगी। थोड़से शब्दोंमें हम अपना मतलब समझा देते हैं। हमारे लिये इस समय वही हिन्दी अधिक उपकारी है, जिसे हिन्दी बोलनेवाले तो समझ ही सके उनके सिवा उन प्रान्तोंके लोग भी उसे कुछ-न-कुछ समझ सकं जिनमें वह नहीं बोली जाती। हिन्दीमें संस्कृतके सरल-सरल शब्द अवश्य अधिक होने चाहियं, इससे हमारी मूल भाषा-संस्कृतका उपकार होगा और गुजराती, बङ्गाली मराठे आदि भी हमारी भाषाको समझनेके योग्य होंगे। किसी देशकी भाषा उस समय तक कामकी नहीं होती, जब तक उसमें उस देशकी मूल भाषाके शब्द बहुतायतके साथ शामिल नहीं होते। अयोध्यासिंहजी स्त्रीको “इसतीरी” मित्रको “मितर" स्वर्गको “सरग" शब्दको “सबद” आदि लिखके अपनी भाषाको सौ साल पीछे धकेलनेकी चेष्टा क्यों करते हैं ? पोथीकी कहानी अच्छी है। गंवारी शब्दोंको छोड़कर भाषा बहुत अच्छी है। 2में खङ्गविलास प्रेस बांकीपुरसे मिलती है। -भारतमित्र, सन् १९०५ ई० । [ ५७० ]
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