पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/५९९

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गुप्त-निषन्धावली स्फुट-कविता कहां राज कह पाट प्रमु कहां मान सम्मान ! पेट हेत पायन परत हरि तुम्हरी सन्तान ।। आज विजय-दसमी भई तुम्हरो रघुकुल राय । सोचत सोचत निज दशा छाती फाटी जाय ।। नहिं उमङ्ग नहिं हर्ष कछु नहिं उछाह नहिं चाव। उदासीनताको छयो चारहु ओर प्रभाव !! नाचत नाहिं तुरङ्ग कहुं नहिं हाथिन पे झूल । चमकत नाहिंन खड्ग कह बरमत नाहिन फूल ।। जिनके छत्रनपर रही तरिवारन करि छांह । अभय सबनको करत ही जिनकी लम्बी बांह ।। मो विस्वम्भरनाथके चरनन महं सिर नाय । घटतीके दिन मार मन चुपके रहे बिताय ।। जिनके करसों मरन लौं छुट्यो न कठिन कृपान । तिनके सुत प्रभु पेट हित भये दास दरवान !! जहां पेटको झींखिबो तहां कौनको चाव। नाथ पुकारे कहत हैं तुमसों कहा दुराव ।। ऐसे ही तपबल गयो भये हाय ! श्रीहीन । निस दिन चित चिन्तित रहत मन मलीन तन छीन ।। घर बैठे खोयो सबै कर्म धर्म व्रत नेम। कलि विषयन महं बूड़िके भूले प्रभुपद प्रेम !! जाति दई सद्गुण दये खोये बरन विचार ! भयौ अधम हूतं अधम हमरो सब व्यवहार ।। विश्वामित्र वसिष्टके वंशज हा ! श्रीराम ! शव चीरत हैं पेट हित ! अरु बेचत हैं चाम । भूठि मलेच्छनकी हहा ! ग्वात मराहि मराहि । [ ५८२ ]