पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/६०१

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गुप्त-निबन्धावली स्फुट-कविता हम कोऊ लायक नहीं सब लायक प्रभु आप । दीनहु ते अति दोन हैं वेगि मिटावहु ताप ।। तुम बिन प्रभु को दुसरो बिगरी देहि बनाय । दया करो फेरो दशा होहु कृपालु सहाय ।। राजपाट धन बल गयो जावहु कृपा निधान । पैन जाय यह अरज है तुम्हरे पदको ध्यान ।। हियसों नाथ न बीसरै कबहु रामको राज। हिन्दृपन पै दृढ़ रहै निस दिन हिन्दुसमाज ।। यद्यपि हम-मो दूसरो नाथ नाहिं बेकाम । पं हियतै मत बीसरी “निर्बलके बल राम” । -हिन्दी-बङ्गवासी, २ अक्टुबर १८९६ ई. राम भरोसा। राम तुम्हारो नाम सुन्यो तुम देखे नाहीं । कैसे हो तुम यहै सोच हमरे मनमाहीं ।। वेदन और पुरानन तव लीला बहु गाई । सुनी पढ़ी हम हू कितनी तुम्हरी प्रभुताई ।। त्रेतायुगमहं भयो सुन्यो हम राज तुम्हारो और सुन्यो यह जगत बन्यो तुमहीते सारो ।। कृत श्रेता द्वापर कलि इन चारहु जुगमाहीं। अचल राज महाराज तुम्हारो रहत सदाहीं ।। रवि ससि ब्रह्मा इन्द्र अन्त सबहीको आवै । रामराजको पार किन्तु कोऊ नहिं पावै ।। कला नसे चादनी छीन कै ससि हो कारो। पै दुनो दूनो चमक प्रभु राज तुम्हारो॥ [ ५८४ ]