गुप्त-निबन्धावली
स्फुट-कविता
हम प्रभु लाज समाज आज मब धोय बहाई ।।
मेटे वेद पुरान न्याय निष्ठा सब खोई ।
हिन्दूकुल-मरजाद आज हम सबहि डबोई ।।
पेट भरन हित फिर हाय कूकुरसे दर दर ।
चाटहि ताके पैर लपकि मारहिं जो ठोकर ।।
तुम्हीं बताओ राम तुम्हें हम कैसे जानें ।।
कैसे तुम्हरी महिमा कलुषित हियमहं आने ।।
किन्तु सुने हम गम अहो तुम निरबलके बल ।
यही रही है हमरे हियमहं आसा केवल ।।
गुह निषाद हम सुन्यो राम छातीत लायो।
माता सम भिल्लनी गीध जिमि पिता जरायो ।
यह हिन्दगन दीन छीन हैं सरन तुम्हारे ।
मारो चाहे राग्यो तुमही हो रखवारे ।।
दया करो कछु ऐसी जो निज दसा सुधारें ।
तुम्हरो उत्सव एकबार पुनि उरमहं धारें
-हिन्दी-बङ्गवासी, २४ अक्टूबर सन् १८९८ ई०
हे राम
आज एक बिनती करें तुमसों रघुकुलराय
कौन दोस लखि नाथ तुम दियो हमहिं बिसराय ।।
अथवा हमही आप कहें भूले डोलन नाथ ।
चरण कमलमें नाथके अब नहिं हमरो माथ !!
सांची को दोहूनमें दोजे हमें बताय ।
तुम भूले वा हम फिरहिं निज नाथहिं विसराय।
जो प्रभु हम कहं चित्तसों दीयो नाहि बिसारि।
तौ केहि कारण आज यह दुर्गति नाथ हमारि ।।
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पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/६०३
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