सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/६०७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

गुप्त-निबन्धावली स्फुट-कविता याहीमें दिन जात हैं सुनिये रघुकुलराज ।। दो दो मूठी अन्न हित ताकत पर मुख ओर । घरहीमें हम पारधी घरहीमें हम चोर ।। तौहू आपसमें लड़ें निसदिन स्वान समान । अहो ! कौन गति होयगी आगे राम सुजान ? घरमैं कलह विरोधकी बेठे आग लगाय । निसदित तामें जरत हैं जरतहि जीवन जाय ।। विप्रन छोड्यो होम तप अरु छत्रिन तरवार । बनिकनके पुत्रन तज्यो अपनो मव्यवहार ।। अपनो कछु उद्यम नहीं तकत पराई आम । अब या भारतभूमिमें सबं वरन हैं दास ।। सर्व कहैं तुम हीन हो हमहु कहैं हम हीन । धक्का देत दिनानकों मन मलीन तन छीन । कौन काज जनमत मरत पूछत जोर हाथ ? कौन पाप यह गति भई हमरी रघुकुलनाथ ? -भारतमित्र, १५ अक्टूबर १९०४ ई. दुर्गा-स्तुति ( भगवान शङ्कराचार्य्यके 'देव्यापराधक्षमापन स्तोत्र' की छाया) (१) जानत हूं कछु मन्त्र न जन्त्र न जानत अस्तुति रीति तिहारी। जानत हूं आह्वान न ध्यान न पूजा ऋचाकी खरी बिधि सारी । जानत मुद्राकी रीति कछू न कछ भाषन परितोषन मारी। पै यह जानत हूं जननी अवलम्ब तुम्हारौ सदा दुखहारी ॥ [ ५९० ]