पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/६१९

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गुप्त-निबन्धावली स्फुट-कविता अपने निरबल निरधन सुतहि ____ मात रही बिसराय कस ! यो मोह छोह सब छाड़िके होय रही क्यों नींद बस ? (२) रोगी दुख भोगी भूख तव सुत बिडरावहिं । पेट हेत नित मरे पर्च भरपेट न पावहिं । करहिं अधर्म कुकम्म करहिं बहुविधि सुख कारो। जागहु जागहु मात दुःख इन सबको टारो: उठहु अम्ब ! सङ्कट हरो निद्रा दूर बहाय कै। कर साठ कोटि जोर खरे द्वारे तव सुत आयकै। एक बार सुरराज मात तू आन जगाई। नयन खोलि तम पीर भक्तकी तुरत मिटाई । म्वर्ग भ्रष्ट सुरपतिकहं पुनि इन्द्रासन दीन्हो । असुरन कहं करि जेर सुरन चित प्रमुदित कीन्हो । लाखाघर जरिते पंडु सुत लीन्हे मात उबारि तुम। कस सोई लम्बी तानिकै मातु हमारी बारि तुम ।। प्रार्थना ( ५ ) निज प्रभाव जो मात चराचर जग विस्तारत । सब देवनकी शक्ति पुंजलै बपु निरधारत । [ ६०२ ]