पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/६२०

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देव-देवी स्तुति करहिं निरंतर सदा देव मुनि जाको पूजन । बिधि हरिहर सो अतुल भाव कर सकहिं न बरनन सो मात सदा करुनामयी नित हमार मंगल करें। बहु भक्ति भावसों धाय हम श्रीचरननमैं सिर धरें। (५) पुण्यवान घर जो देवी सम्पति है राजत । पापिनके घर जो दारिद्र रूपसों गाजत । श्रद्धा ह्र सज्जन जन हिय जो बसत सदाही । लज्जा सुजनन माहिं बुद्धि ह्र बुधजन माहीं । सो मात भवानी चण्डिका जगपालन हित चित धरो। भय शोक अमंगल ताप दुख दूर एक छिनमहं करो। (६) रूप अचिन्त अनन्त अहै जगदम्ब तुम्हारो। भुजबल अमित अपार दनुज कुल नासन हारो। सुरगन लीन्हे राखि असुर सब मारि गिराये । कैसे बरनन होइ चरित जो तम दिखराये ! जय त्रिगुन रहित त्रिगुनन सहित अखिल जगत विस्तारिनी ।। जय जयति अपारा सकलमय सकल पदारथ-धारिनी ।। [ ६०३ ]