गुप्त-निबन्धावली
सुट-कविता
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तुम स्वाहा तुम स्वधा यज्ञ तुम्हरे बल चालत ।
तुमहि मात सव्वत्र देव नर सब कहं पालत ।
मुक्ति हृत बहु कष्टपाय जो जन व्रत साधं ।
मुक्ति म्वम्पा जानि एक तुमकहं आराधे ।
त्रियवेद स्वरूपा सब्द मय
कोउ पावत नाहीं पार है।
तुम देवी सर्व एस्वर्यकी
नुमसे सब संसार है।
सस्य रूप धर मात जगत कहं पालन करनी ।
धरि प्रचण्ड वपु पीड़ा रोग ताप संहरनी ।
सब वेदनको मार मात नित मंगलकरनी ।
दुर्ग दुर्गम भवसागर तारनकी तरनी।
धरि महालच्छमी रूप नित
हरिक हिये बिहारिनी।
तुमही गौरी, सिवसङ्गिनी
मबको दुःख निवारिनी।
दया करो यह आस पुजाओ हमरे मनकी ।
सुध न बिसार कबहु तुम्हारे श्रीचरननकी।
सदा रख दृढ़ हिय महं निज साँचो हिन्दूपन ।
घोर बिपदहू पर डिगै नहिं आन ओरि मन ।
निज धर्म कर्म ब्रत नेम नित
दृढ़ चित ह पालन करें।
नहिं आपनपो बिसरायके
आन ओरि सपनहुँ डरें।
-हिन्दी-बङ्गवासी, ४ सितम्बर सन् १८९७ ई.
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पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/६२१
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