गुप्त-निबन्धावली सुट-कविता % E 4 तुम स्वाहा तुम स्वधा यज्ञ तुम्हरे बल चालत । तुमहि मात सव्वत्र देव नर सब कहं पालत । मुक्ति हृत बहु कष्टपाय जो जन व्रत साधं । मुक्ति म्वम्पा जानि एक तुमकहं आराधे । त्रियवेद स्वरूपा सब्द मय कोउ पावत नाहीं पार है। तुम देवी सर्व एस्वर्यकी नुमसे सब संसार है। सस्य रूप धर मात जगत कहं पालन करनी । धरि प्रचण्ड वपु पीड़ा रोग ताप संहरनी । सब वेदनको मार मात नित मंगलकरनी । दुर्ग दुर्गम भवसागर तारनकी तरनी। धरि महालच्छमी रूप नित हरिक हिये बिहारिनी। तुमही गौरी, सिवसङ्गिनी मबको दुःख निवारिनी। दया करो यह आस पुजाओ हमरे मनकी । सुध न बिसार कबहु तुम्हारे श्रीचरननकी। सदा रख दृढ़ हिय महं निज साँचो हिन्दूपन । घोर बिपदहू पर डिगै नहिं आन ओरि मन । निज धर्म कर्म ब्रत नेम नित दृढ़ चित ह पालन करें। नहिं आपनपो बिसरायके आन ओरि सपनहुँ डरें। -हिन्दी-बङ्गवासी, ४ सितम्बर सन् १८९७ ई. [६०४
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