पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/६८४

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हंसी-दिल्लगी वहाँ नहीं है मनुष्य कोई बन्धन ताड़न करनेको है सब विधि सुविधा स्वच्छन्द विचरनेको और चरनेको । वहां करे है भैंस हमारी क्रोड़ केलि किलोल । पंछ उठाये भ्यां भ्यां रिड़के मधुर मनोहर बोल ।। कभी कहीं कुछ चरती है और कभी कहीं कुछ खाती है । कभी सरपतोंके झण्डोंमें जाकर सींग लगाती है। कभी मस्त होकर लोटे है तालावोंके बीच । देह डबोये थूथन काढ़े तन लपटाये कीच ।। कभी वेगसे फदडक फदडक करके दौड़ी जाती है। हलकी क्षीण कटीका सबको नाजुकपन दिखलाती है। सींग अड़ाकर टीलेमें करती है रेतउछाल । देखतेही बन आता है बस उस शोभाका हाल ।। पीठके ऊपर झांपल बैठी चुन चुन चिचड़ी खाती है । मेरी प्यारी महिषी उससे और मुदित हो जाती है। अपनेको समझे है वह सब भैंसोंकी सरदार । आगे पीछे चलती हैं जिस दम पड़िया दो चार ।। सब भैस आदर देती हैं सब भैसे करते हैं स्नेह । महिषि राज्ञिका एक अर्थ है तब खुलता है निस्सन्देह । तिस पर वर्षाकी बूंद जो पड़ती हैं दो एक । तब तो मानो इन्द्र करे है स्वयं राज अभिषेक [ ६६७ ]