पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/६८५

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गुप्त-निबन्धावली स्फुट-कविता डाबरकी गहरी दलदलमें घुटनों तक है दुबखड़ी। वहाँ रौंथ करती फिरती है लिये सहेली बड़ी बड़ी । पूंछ हिलाती है प्रसन्न मन, मनो चंवर अभिराम । मक्खी मच्छर आदि शत्रुकी शङ्काका नहिं काम ।। ( ११ ) पड़िया मुंहको डाल थनोंमें प्यारसे दूध चुहकती है। आप नेहसे नितम्ब उसके चाटती है और तकती है। दिव्य दशा अनुभव करती है करके आंख बन्द । महा तुच्छ है इसके आगे स्वर्गका भी आनन्द ।। __पक्का प्रेम। व्याज छोड़ि के कीजिये सदा नेह निर्बाह, जहां प्रेम-धौंसा बजै कहा करंगो व्याह ? फीको लागत है सदा बिन नखराको नेह । जिमि हिय हलसावत नहीं बिन चपलाको मेह ।। तरल तरङ्ग कहात है तरुनाईको प्रेम । बिन दृढ़ यौवन होत नहिं प्रेमी दृढ़ यह नेम ।। ब्याह करनके हेत जो तरुनि दिखावै प्रीति । सो आदर लायक नहीं यही प्रेमकी रीति ।। प्रेम मिलै जो सहजमें सो नहिं आदर जोग । वही प्रेम अनमोल है मिलै भोगि बहु भोग । धड़कत प्रेमीको हियो याहीसों दिन रात । प्यारी मुख कहा नीसर सुनत प्रेमको बात ।। प्रेम शिकारी करत है जाको आय शिकार । [ ६६८ ]