पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/६८६

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हंसी-दिल्लगी नोंद भूख उड़ जात है वाकी एकहि बार ।। होत प्रियाके ध्यानमें प्रमीके सब काज । नाहिं प्रेम कहं प्रेम सों कछु अन्तर अझ लाज ।। सो सुख प्रेमी लखत है स्वर्गहुसे कमनीय । कबहु जो ढिग आय के धीर बंधावै तीय ।। दोस नहिं एक तरुनि की करें युवा द्वे चाह । ऐसे ही द्वै तरुनिको होय एकही नाह ।। -हिन्दी-बङ्गवासी, २० मई १८९५ ई.। सभ्य बीबीकी चिट्ठी (१) बताओ आके मेरे पास, किस तरह पूरी होगी आस ? छएगा कसे बौना चन्द, बुद्धि कैसी है उसकी मन्द ? हंसी आती है सुन सुनकर, बताता नहीं कहां है घर ? कहां है ऊंचा चोबारा, संगमरमरका फव्वारा ? चमन फूला है किस जा पर, कहां है बेलोंका “बावर" ? कहां झाऊकी सदा बहार, कहां सरवोंकी साफ कतार ? ह्वाघर कहां है उसके पास, किस तरह होगी पूरी आस ? कहां है “टेनिसघर" दिखलाव, कहां मछलीका बना तलाव ? बात वह अगली सब सटकी, बहू मैं जब थी बूंघटकी ? मजा अब सुखका पाया है, स्वाद शिक्षाका आया है ? खुले अब नैन नींद गई टूट, बुद्धिके पर आये हैं फूट । घुटाव क्यों पिंजरेमें दम ? नहीं कुछ अन्धी चिड़िया हम । न लंक्यों खुली हवामें सांस ? किस तरह पूरी होगी आस ।