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गुप्त-निबन्धावली स्फुट-कविता जोबन चिर दिन रहत न सजनी जरा अन्त कहं आवै यही निरासा चिरदिन जिय कहं बारहिं बार सतावै । परिचित है मुसकान तुम्हरी। सुमरन नाहिं, भई वा नाहीं, कबहूं तुमते भेट हमारी । कछु कछु सुध आवत रहि रहिकर होत हुलास हिये अतिभारी नंन चहत दरसन कर परसन धाय कण्ठ लावहु बलिहारी ! हे असाढ़के नव धनवा घन मीत, वसी हियरवा भीतर तुम्हरी प्रीत | तव दरसन करि बहुर जुड़ाने प्रान, हरे भये पुनिहियके सूखे धान । मांगत हं तुमसों दोऊ कर जोर, दया दीठि कर चितवहु मेरी ओर । ले चल हे प्रिय ! मोकहं संग लगाय, एक बार पिय दरसन देहु दिखाय ॥ मिलन बहुरु आयो तव दरसन काज। उठहु चान्द सो मुखरावहु नयन सिरावहु आज । दोउ प्यासे चकोर नैनन कहं ससिमुख-सुधा पियावहु । एक बार हिय लाय पियारी मरतहि मोहि जियावहु ॥ -हिन्दी-बङ्गवासी, २० जून, १८९६ ई. [ ६७४ ]