पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/६९३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

गुप्त-निबन्धवाली स्फुट-कविता तहमद अरु पतलून एक भये एक कोट मिरजाईरे। चोटी डाढ़ी क्रूस जनेऊ गड्डमगड्ड मचाईरे ।। अल्ला कर ब्याह विधवनका गाडहुके मनभाईरे । निराकारने सात चारकी चोखी चाल चलाईरे ।। अङ्का तारे बङ्का तारे तारे सजन कसाईरे । कहैं कबीर सुनो भाई साधो सच्ची बात सुनाईरे ।। पातिव्रत। एकहि धर्म एक व्रत नेमा, काय वचन मन पतिपद प्रेमा । पै पति सो जो मनकहं भावे, रोम रोम भीतर रम जावे । बालकपनको पति जो होई, तासों प्रीति करो मति कोई । ताको छाड़ करो पतिदूजो, मन लगाय ताके पद पूजो । जब लगि वा पतिको मन चाहै, तब लगि वासों नेह निबाहै । जब मनमाहि रहे नहीं नेहू, आन किसीसों करै सनेहू । एक मरं दसर पति करहीं, सो तिय भवसागर उत्तरहीं। जो पति छाय रहे परदेसा, और करै, नहिं सहे कलंसा। पति बिन तियकर नाहि गुजारा, स्वामीजी कहि गये विचारा। -हिन्दी बगवासी, १९ अप्रैल १८९७ ई. चूहोंका मातम । कपड़े काटे ई बिगारी, नास किये सन्दूक पिटारी । बिबिर खोद सब घर थुथरायो, चौपट कियो जो आगे पायो। कबहुं कोऊ बस्तु गिराई, कुछ खाई कुछ घूरि मिलाई । ऐसे दोष तुम्हारे भाई, जानत हे सब लोग लुगाई । ऐसेही लाखन बरस बिताने, और दोष हम सुने न जाने । पर अब दोष कियो तुम भारी, बम्बइसे लाये महमारी।