पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/७०१

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गुप्त-निषन्धावली स्फुट-कविता आओरे मेरे सरल शिखण्डी करो गुरुको ओट । तुमको करके सामने पीछेसे मारू चोट ।। घाव गहरा पहुंचाऊं, मनोरथ सिद्ध कराऊं। मढ़ी पक्की बनवाऊं, मजेमें अलख जगाऊं। जोगीजीकी बने मलैया लग किवड़िया लाल । सुखसे सोव जोगी जोगिन चेले होंय निहाल । छमाछम धुंघुरू बाज,गुरु सेजों पे राजें। शिष्य पहरे पर गाज, सेज फूलोंकी साज । चेला वचनम् हिन्दू धरम अलम पे सोहे मछली बाय हाथ । सिर पे चोटी कांधे झोली इन सबका क्या साथ ? मिटाओ संशय मेरा, रहूं चरननका चेरा। हियेका मिटे अंधेरा, नाम हो जगमें तेरा। बाबाजी वचनम् । अरे शिवण्डी ओ पाखण्डी नाहक उमर गंवाई । बैगन बेच तमाखू बेचा तो भी अकल न आई ।। पढ़ी नाहक अंगरेजी, दिखाई झूठी (तेजी । बना कुछ दिन दुमरेजी, जरा सीखो सहमेजी । बाबा बच्चोंका नृत्य हिन्दृ रूप बनाया र सबको भरमाया । हिन्दु बने लगाई चोटी, तोंद करी पतलीसे मोटी। धर्म हमाग मछली रोटी, और सब झूठी मायार । यह दुनिया है मठा सपना, हम हैं किसके कौन है अपना। हरदम पैमा पैसा जपना, यही ध्यान हम लायारे । चेलोंसे भिक्षा मंगवावं, घरमें बैठे चैन उड़ावं । [ ६८