गुप्त-निबन्धावली स्फुट-कविता पेट भरे लार्ड कर्जनने लेकचर देना जाना। जब जब देखा तब तब समझे जहाँ खाना तहां गाना ।। बाहर धर्मभवन शिवमन्दिर क्या ढूंढ़े दीवाना । ढूंढो इसी पेटमें प्यारो तब कुछ मिले ठिकाना । -भारतमित्र, १४ मार्च १९०३ ई० । आजकलका सुख बागको जाते हैं चलिये मिलके बहलायंगे जी । जिस जगह तालाबके तट पर है एक कोठी सजी ।। जिस जगह हैं फूलते ढेरों चमेली ओ गुलाब । है जहाँ बिगनोनियाकी औरही कुछ आबताब ।। नारियलकी चोटियों पर चाँदनीका है निखार । लूट लो यह जिन्दगीकी चार दिनकी है बहार ॥ नाचती परियोंके चलकर देखिये वह कुञ्जबन । जेवरोंकी शान पिशवाजोंकी वह बाकी फबन ।। तानपूरेकी तनारूं रूं वह तबलेकी ठनक । साथ सारङ्गीकी चं चं के मजीरोंकी खनक ।। रूपकी तेजी निगाहोंकी वह उस पर मार मार । वह समयका ठाठ वह परयोंके जोबनका निखार ।। पद्मिनी घरमें है पर कुछ उससे सुख मिलता नहीं। सके कोरे प्रेमसे दिलका कमल खिलता नहीं। [ ६९० ।
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