गुप्त-निबन्धावली स्फुट-कविता आइये अब भक्तके मस्तकमें डरा कीजिये । बक्सके घोड़ेपे चढ़के नित्य दशन दीजिये ।। रंडियां गुड़ हैं हमें उस गुड़की जानों मक्खियां । रात दिन करते हैं भिन भिन उनपे लेते चम्वियाँ ।। जूतियाँ खाके भी उनकी खिलखिलाते हैं सदा । पर किसी कंगालको देख तो होते हैं ग्वफा ।। देखके कोमलको होते हैं कड़े, कड़ियलको नर्म । देखके भिक्षुकको स्वर करते हैं ऊंचा और गर्म ।। जोर इस गद्दीके खाये देहमें जो है बचा। वह सभी देते हैं मंगतोंके भगानेमें लगा ।। ढालते हैं हम तुम्हें ताली बजाना चाहिये । गालियां देते हो क्यों पानी पिलाना चाहिये ।। देशहित चाहो तो उसकी भी नहीं है कछ कमी। जीमें उसकी भी नहीं है, यार कुछ कम हमहमी ।। माहबोंको सब तरहसे खूब रखते हैं प्रसन्न । उनके कामों में न चन्दा द तो कब पचता है अन्न ।। झाड़ते लेकचर हैं लिग्वते लेख अब बतलाइये । देश हितके वास्ते क्या क्या कर फरमाइये ।। (८) कर चुके कर्त्तव्य पूरा हो पड़े तबले पे थाप । वह पड़े हत्थी कि चिल्लाये पखावज बाप बाप ।। कामिनीका हो झमकड़ा रंगका दरया बह। हाँ, चले प्याले पे प्याला जिसको जो भावे कहे ।। । ६९२ ]
पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/७०९
दिखावट