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गुप्त धन
 

दिया, जो केवल बहुत व्यापक अर्थों में मकान कहा जा सकता था। इसी झोपड़ी में वह एक हफ्ते से जिन्दगी के दिन काट रहा है। उसका चेहरा जर्द है और कपड़े मैले हो रहे हैं। मगर ऐसा मालूम होता है कि उसे अब इन बातों की अनुभूति ही नहीं रही। जिन्दा है मगर जिन्दगी रुखसत हो गयी है। हिम्मत और हौसला मुशकिल को आसान कर सकते हैं, आँधी और तूफान से बचा सकते हैं मगर चेहरे को खिला सकना उनके सामर्थ्य से बाहर है। टूटी हुई नाव पर बैठकर मल्हार गाना हिम्मत का काम नहीं हिमाकत का काम है।

एक रोज़ जब शाम के वक्त वह अंधेरे में खाट पर पड़ा हुआ था, एक औरत उसके दरवाजे पर आकर भीख मांगने लगी। मगनदास को आवाज़ परिचित जान पड़ी। बाहर आकर देखा तो बही चम्पा मालिन थी। कपड़े तार-तार, मुसीबत की रोती हुई तसवीर। बोला–पालिन? तुम्हारी यह क्या हालत है? मुझे पहचानती हो?

मालिन ने चौंककर देखा और पहचान गयी। रोकर बोली-बेटा, अब बताओ मेरा कहाँ ठिकाना लगे? तुमने मेरा बना-बनाया घर उजाड़ दिया। न उस दिन तुमसे बातें करती न मुझ पर यह बिपत पड़ती। बाई ने तुम्हें बैठे देख लिया, बातें भी सुनीं, सुबह होते ही मुझे बुलाया और बरस पड़ीं----नाक कटवा लूंगी, मुंह में कालिख लगवा दूंगी, चुडैल, कुटनी, तू मेरी बात किसी गैर आदमी से क्यों चलाये? तू दूसरों से मेरी चर्चा क्यों करे? वह क्या तेरा दामाद था, जो तू उससे मेरा दुखड़ा रोती थी? जो कुछ मुंह में आया बकती रही। मुझसे भी न सहा गया। रानी रूठेगी अपना सुहाग लेंगी ! बोली-बाई जी, मुझसे कसूर हुआ, लीजिए अब जाती हूँ। छींकते नाक कटती है तो मेरा निबाह यहाँ न होगा। ईश्वर ने मुँह दिया है. तो अहार भी देगा। चार घर से माँगूंगी तो मेरे पेट को हो जायेगा। उस छोकरी ने मुझे खड़े-खड़े निकलवा दिया। बताओ मैंने तुमसे उसकी कौन-सी शिकायत की थी? उसकी क्या चर्चा की थी? मैं तो उसका बखान कर रही थी। मगर बड़े आदमियों का गुस्सा भी बड़ा होता है। अब बताओ मैं किस की होकर रहूँ ? आठ दिन इसी तरह टुकड़े माँगते हो गये। एक भतीजी उन्हीं के यहाँ लौंडियों में नौकर थी, उसी दिन उसे भी निकाल दिया। तुम्हारी बदौलत, जो कभी न किया था, वह करना पड़ा। तुम्हें काहे को दोष लगाऊँ, क़िस्मत में जो कुछ लिखा था, वह देखना पड़ा।

मगनदास सन्नाटे में आ गया। आह, मिजाज का यह हाल है, यह घमण्ड,