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गुप्त धन
 


जब गांव के सारे आदमी आ गये तो दारोगा जी ने अफसरी शान से फरमाया-मौजे में ऐसी संगीन वारदात हुई और इस कम्बरून गोपाल ने रपट तक न की। मुखिया साहव बेद की तरह काँपते हुए बोले---हजूर, अब माफी दी जाय। दारोगा जी ने राजबनाक निगाहों से उसकी तरफ देखकर कहा--यह उसकी शरारत है। दुनिया जानती है कि जुर्म को छुपाना जुर्म करने के बराबर है। मैं इस बदमाश को इसका मजा चखा दूंगा। वह अपनी ताकत के जोम में भूला हुआ है, और कोई बात नहीं। लातों के भूत बातों से नहीं मानते। मुखिया साहब ने सिर झुकाकर कहा-हजूर, अब माफी दी जाय। दारोगा जी की त्योरियाँ चढ़ गयीं और झुंझलाकर बोले--अरे हजूर के बच्चे कुछ सठिपा तो नहीं गया है। अगर इसी तरह माफी देनी होती तो मुझे क्या कुत्ते ने काटा था कि यहाँ तक दौड़ा आता। न कोई मामला, न मामले की बात, बस माफी की रट लगा रक्खी है। मुझे ज्यादा फुरसत नहीं है। मैं नमाज़ पढ़ता हूँ, तब तक तुम अपना सलाह-मशविरा कर लो और मुझे हँसी-खुशी रुखसत करो वर्ना गौसखाँ को जानते हो, उसका मारा पानी भी नहीं माँगता! दारोगा तकवे व तहारत के बड़े पाबन्द थे। पांचों बात की नमाज पढ़ते और तीसो रोजे रखते, ईदों में धूमधाम से कुर्बानियाँ होती। इससे अच्छा आचरण किसी आदमी में और क्या हो सकता है!

मुखिया साहब दबे पाँव गुपचुप ढंग से गौरा के पास आये और बोले- यह दरोगा बड़ा काफिर है, पचास से नीचे तो बात ही नहीं करता। अब्बल दर्जे का थानेदार है। मैंने बहुत कहा, हजूर सरीब आदमी है, घर में कुछ सुभीता नहीं, मगर वह एक नहीं सुनता। गौरा ने चूंघट में मुंह छिपाकर कहा-दादा, उनकी जान बच जाय, कोई तरह. की आंच न आने पाये, रुपये पैसे की कौन बात है, इसी दिन के लिए तो कमाया जाता है। गोपाल खाट पर पड़ा यह सब बातें सुन रहा था। अब उससे न रहा गया। लकड़ी गांठ ही पर टूटती है। जो गुनाह किया नहीं गया वह दबता है मगर कुचला नहीं जा सकता। वह जोश से उठ बैठा और बोला-पचास रुपये की कौन कहे. मैं पचास कौड़ियाँ भी न दूंगा। कोई गदर है, मैंने कसूर क्या किया है ?