पृष्ठ:गुप्त धन 1.pdf/१६८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

१५६ गुप्त धन । सूझता है और हाथ-पाँव चलते हैं, मुझे और मरनेवाले को गुनहगार न करो। उस दिन से हीरामणि को फिर उसके साथ अमली हमदर्दी दिखलाने का साहस न हुआ। एक दिन रेवती ने ठकुराइन से उपले मोल लिये। गाँव में पैसे के तीस उपले बिकते थे। उसने चाहा कि इससे बीस ही उपले लूं। उस दिन से ठकुराइन ने उसके यहाँ उपले लाना बन्द कर दिया। ऐसी देवियां दुनिया में कितनी हैं ! क्या वह इतना न जानती थी कि एक गुप्त रहस्य जबान पर लाकर मैं अपनी इन तकलीफ़ों का खात्मा कर सकती हूँ! मगर फिर वह एहसान का बदला न हो जायगा ! मसल मशहूर है नेकी कर और दरिया में डाल। शायद उसके दिल में कभी यह खयाल ही न आया कि मैंने रेवती पर कोई एहसान किया। यह वज़ादार, आन पर मरनेवाली औरत पति के मरने के बाद तीन साल तक जिन्दा रही। यह ज़माना उसने जिस तकलीफ़ से काटा उसे याद करके रोंगटे खड़े हो जाते हैं। कई-कई दिन निराहार बीत जाते। कभी गोबर न मिलता, कभी कोई उपले चुरा ले जाता। ईश्वर की मर्जी ! किसी का घर भरा हुआ है, खानेवाले नहीं। कोई यों रो-रोकर जिन्दगी काटता है। बुड़िया ने यह सब दुख झेला भगर किसी के सामने हाथ नहीं फैलाया। ८ हीरामणि की तीसवीं सालगिरह आयी। ढोल की सुहानी आवाज सुनायी देने लगी। एक तरफ घी की पूड़ियाँ पक रही थीं, दूसरे तरफ तेल की। घी की सोटे ब्राह्मणों के लिए, तेल की गरीब भूखे नीचों के लिए। अचानक एक औरत ने रेवती से आकर कहा--उकुराइन जाने कैसी हुई जाती हैं। तुम्हें बुला रही हैं। रेवती ने दिल में कहा-आज तो खैरियत से काटना, कहीं बुढ़िया मर न रही हो। यह सोचकर वह बुढ़िया के पास न गयी। हीरामणि ने जब देखा, अम्मां नहीं जाना चाहती तो खुद चला। ठकुराइन पर उसे कुछ दिनों से दया आने लगी थी। मगर रेवती मकान के दरवाजे तक उसे मना करने आयी। यह रहमदिल, नेकमिजाज, शरीफ़ रेवती थी।