पृष्ठ:गुप्त धन 1.pdf/१७६

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१६४ गुप्त पन का काम दे रही थीं। जिस तरह साधुओं के दिल सत्य की ज्योति से भरे होते हैं, उसी तरह सागर और तालाब साफ़-शफ़्फ़ाफ़ पानी से भरे थे। शायद राजा इन्द्र कैलाश की तरावट भरी ऊँचाइयों से उतरकर अब मैदानों में आनेवाले थे। इसीलिए प्रकृति ने सौन्दर्य और सिद्धियों और आशाओं के भी भाण्डारखोल दिये थे। वकील साहब को भी सैर की तमन्ना ने गुदगुदाया। हमेशा की तरह अपने रईसाना ठाट-बाट के साथ गाँव में आ पहुँचे। देखा तो संतोष और निश्चिन्तता के वरदान चारों तरफ स्पष्ट थे। ६ गाँववालों ने उनके शुभागमन का समाचार सुना, सलाम को हाज़िर हुए। वकील साहब ने उन्हें अच्छे-अच्छे कपड़ पहने, स्वाभिमान के साथ कदम मिलाते हुए देखा। उनसे बहुत मुस्कराकर मिले। फस्ल का हालचाल पूछा। बूढ़े हरदास ने एक ऐसे लहजे में जिससे पूरी जिम्मेदारी और चौधरापे की शान टपकती थी, जवाब दिया--हुजूर के कदमों की बरकत से सब चैन है। किसी तरह की तकलीफ़ नहीं। आपकी दी हुई नेमत खाते हैं और आपका जस गाते हैं। हमारे राजा और सरकार जो कुछ हैं, आप हैं और आपके लिए जान तक हाजिर है। ठाकुर साहब ने तेवर बदलकर कहा--मैं अपनी खुशामद सुनने का आदी नहीं बूढ़े हरदास के माथे पर बल पड़े, अभिमान को चोट लगी। बोला---मुझे भी खुशामद करने की आदत नहीं है । ठाकुर साहब ने ऐंठकर जवाब दिया-सुम्हें रईसों से बात करने की तमीज़ नहीं। ताक़त की तरह तुम्हारी अक्ल भी बुढ़ापे की भेंट चढ़ गयी। हरदास ने अपने साथियों की तरफ देखा। गुस्से की गर्मी से सब की आँख फैली हुई और धीरज की सर्दी से माथे सिकुड़े हुए थे । बोला-~-हम आपकी रैयत हैं लेकिन हमको अपनी आबरू प्यारी है और चाहे अपने जमीन्दार को अपना सिर दे दें आबरू नहीं दे सकते। हरदास के कई मनचले साथियों ने बुलन्द आवाज़ में ताईद की-आबरू जान के पीछे है। ठाकुर साहब के गुस्से की आग भड़क उठी और चेहरा लाल हो गया, और जोर से बोले--तुम लोग जवान सम्हालकर बातें करो वर्ना जिस तरह गले में झोलियां लटकाये आये थे उसी तरह निकाल दिये जाओगे । मैं प्रद्युम्न सिंह हूँ जिसने तुम