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शेख मखमूर
१३
 


उसे पूरा यक़ीन था कि यही तलवार किसी दिन किशवरकुशा दोयम के सर पर चमकेगी और उसकी शहरम के खून से अपनी जवान तर करेगी।

एक रोज़ वह एक शेर का पीछा करते-करते बहुत दूर निकल गया! धूप सख्त थी, भूख और प्यास से जी बेताब हुआ, मगर वहाँ न कोई मेवे का दरख्त नजर आया न कोई बहता हुआ पानी का सोता जिसमें भूख और प्यास की आग बुझाता। हैरान और परीशान खड़ा था कि सामने से एक चाँद जैसी सुन्दर युवती हाथ में वर्ची लिये और बिजली की तरह तेज़ घोड़े पर सवार आती हुई दिखायी दी। पसीने की मोती जैसी बूंदें उसके माथे पर झलक रही थीं और अम्बर की सुगन्ध में बसे हुए बाल दोनों कंधों पर एक सुहानी बेतकल्लुफी से विखरे हुए थे। दोनों की निगाहें चार हुई और मसऊद का दिल हाथ से जाता रहा। उस ग़रीब ने आज तक दुनिया को जला डालनेवाला ऐसा हुस्न न देखा था, उसके ऊपर एक सकता-सा छा गया। यह जवान औरत उस जंगल में मलिका शेर अफ़गन के नाम से मशहूर थी।

मलिका ने मसऊद को देखकर घोड़े की बाग खींच ली और गर्म लहजे में बोली—क्या तू वही नौजवान है, जो मेरे इलाके के शेरों का शिकार किया करता है? बतला तेरी इस गुस्ताखी की क्या सज़ा दूँ?

यह सुनते ही मसऊद की आँखें लाल हो गयीं और वरवस हाथ तलवार की मूठ पर जा पहुँचा मगर जब्त करके बोला—इस सवाल का जवाब मैं खूब देता, अगर आपके बजाय यह किसी दिलेर मर्द की जबान से निकलता!

इन शब्दों ने मलिका के गुस्से की आग को और भी भड़का दिया। उसने घोड़े को चमकाया और बर्छी उछालती सर पर आ पहुँची और वार पर वार करने शुरू किये। मसऊद के हाथ-पाँव बेहद थकान से चूर हो रहे थे और मलिका शेर अफ़गन बछीं चलाने की कला में बेजोड़ थी। उसने चरके पर चरके लगाये, यहाँ तक कि मसऊद घायल होकर घोड़े से गिर पड़ा। उसने अब तक मलिका के वारों को काटने के सिवाय खुद एक हाथ भी न चलाया था।

तब मलिका घोड़े से कूदी और अपना रूमाल फाड़-फाड़कर मसऊद के जख्म वाँधने लगी। ऐसा दिलेर और गैरतमन्द जवामर्द उसकी नजर से आज तक न गुजरा था। वह उसे बहुत आराम से उठवाकर अपने खेमे में लायी और पूरे दो हफ्ते तक उसकी परिचर्या में लगी रही यहाँ तक कि घाव भर गया और मसऊद का चेहरा फिर पूरनमासी के चाँद की तरह चमकने लगा। मगर हसरत यह थी कि अब मलिका ने उसके पास आना-जाना छोड़ दिया।