पृष्ठ:गुप्त धन 1.pdf/२६१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
बासना की कड़ियां
२४९
 

—हुजूर, फ़रमाइए?

—मशालें बुझा दो, मुझे नींद नहीं आती।

—हुजूर, रात अँधेरी है।

—कोई डर नहीं। तिलाये के जवान होशियार हैं।

—सब की सब गुल कर दी जायं?

—हां।

—जैसी हुजूर की मर्जी।

रूवाजासरा चला गया और एक पल में सब की सब मशालें गुल हो गयीं, अँधेरा छा गया। थोड़ी देर में एक औरत ने शहजादी के खेमे से निकलकर पूछा सरकार पूछती हैं यह मशालें क्यों बुझा दी गयीं?

मसरूर बोला—सिपहदार साहब की मर्जी। तुम लोग होशियार रहना, मुझे उनकी नियत साफ़ नहीं मालूम होती।

क़ासिम उत्सुकता से व्यग्र होकर कभी लेटता था, कभी उठ बैठता था, कभी टहलने लगता था। बार-बार दरवाजे पर आकर देखता, लेकिन पांचों ख्वाजासरा देवों की तरह खड़े नजर आते थे। कासिम को इस वक्त यही धुन थी कि शहजादी का दर्शन क्योंकर हो? अंजाम की फ़िक्र, बदनामी का डर, और शाही गुस्से का खतरा उस पुरज़ोर ख्वाहिश के नीचे दब गया था।

घड़ियाल ने एक बजाया। क़ासिम यों चौंक पड़ा गोया कोई अनहोनी बात हो गयी। जैसे कचहरी में बैठा हुआ कोई फ़रियादी अपने नाम की पुकार सुनकर चौंक पड़ता है। ओ हो, तीन ही घंटों में सुबह हो जायगी। खेमे उखड़ जायंगे। लश्कर कूच कर देगा। वक्त तंग है। अब देर करने की, हिचकिचाने की गुंजाइश नहीं। कल दिल्ली पहुंच जायंगे।अरमान दिल में क्यों रह जाये, किसी तरह इन हरामखोर स्वाजासराओं को चकमा देना चाहिए। उसने बाहर निकल आवाज़ दी—मसरूर।

—हुजूर, फ़रमाइए।

—होशियार हो न?

—हुजूर, पलक तक नहीं झपकी।

—नींद तो आती ही होगी, कैसी ठंडी हवा चल रही है।